मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
बंध-मोक्षवाद
भगवान् प्राह
(25) प्राणिनामुह्यमानानां, जरामरणवेगतः।
धर्मो द्वीपं प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम्।।
जरा और मरण के प्रवाह में बहने वाले जीवों के लिए धर्म द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है।
‘वत्थु सभावो धम्मो’ वस्तु का स्वभावµस्वरूप धर्म है। स्वभाव व्यक्ति को कभी नहीं छोड़ता। मनुष्य स्वभाव को विस्मृत कर सकता है, किंतु स्वभाव मनुष्य को नहीं। उसके अतिरिक्त त्राण, शरण, गति और द्वीप क्या हो सकता है? विभाव कभी शरण नहीं बनता। मनुष्य यह जानता हुआ भी स्वभाव की ओर गति नहीं करता। धर्म की शरण में आओ ‘धम्मं सरणं गच्छामि’ ‘धम्मं सरणं पवज्जामि’ मामेकं सरणं सरणं व्रज’µयह उद्घोष समस्त धर्म प्रवर्तकों द्वारा हुआ है। उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि धर्म को छोड़कर ही प्राणी अनेक आपदाएँ वरण करता है। शांति का आधार धर्म है, इसलिए यहाँ कहा है कि स्वभाव का अनुसंधान करो।
जरा और मृत्यु के महा प्रवाह में बहते हुए प्राणियों की रक्षा का आधार-स्तंभ यही है। उत्पन्न होना, जीर्ण होना और समाप्त होनाµएक भी वस्तु इस नियम से वंचित नहीं है। परिवर्तन का चक्र सब पर चलता है। धर्म अपरिवर्तनीय है, शाश्वतिक है। यही परिवर्तन के चक्रव्यूह से व्यक्ति को मुक्त कर सकता है।
(26) दुर्गतौ प्रपतज्जन्तोर्धारणाद् धर्म उच्यते।
धर्मेणासौ धृतौ ह्यात्मा, स्वरूपमधिगच्छति।।
जो दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण करता है, वह धर्म कहलाता है। अपने स्वरूप को वही प्राप्त होता है, जिसकी आत्मा धर्म के द्वारा धृत है।
धर्म आत्म-विकास का साधन है। धर्म वैयक्तिक है; सामूहिक नहीं। समूह व्यक्ति में धर्म-भावना प्रवाहित करता है। इसलिए वह अनुपादेय नहीं होता। लेकिन जब वह व्यक्ति की स्वतंत्र-चेतना का हरण कर लेता है, तब वह पवित्र नहीं रहता। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने इसलिए कहा था कि ‘धर्म को पकड़ो, धर्मों को नहीं। धर्म कभी अहित नहीं करता। धर्मों को पकड़ने पर अहित होता है। धर्मों का यहाँ अर्थ है सांप्रदायिकता। धर्म से वैमनस्य, विरोध, विभेद आदि पैदा नहीं हुए, ये सांप्रदायिकता से बड़े हैं। आज धर्म को मिटाने की अपेक्षा नहीं है। मिटाना है सांप्रदायिकता को। धर्म कभी मिटता नहीं है। वह सदा अमर है। ‘अमर रहेगा, धर्म हमारा’µधर्म सनातन है। धर्म की वास्तविकता में विरोध नहीं है, विरोध है उसका गलत प्रयोग करने में।
धर्म की वास्तविकता हैµज्ञान का पूर्ण विकास, श्रद्धा का पूर्ण विकास, स्व (आत्म)-भाव का पूर्ण विकास और आत्मशांति का पूर्ण विकास। अहिंसा, सत्य, कषाय-विजय, इंद्रिय-संयम, मनो-निग्रह, राग-द्वेष-विलय आदि आत्म-विकास के सहायक हैं। इसलिए ये धर्म हैं। किसी भी धर्म का इनके साथ विरोध नहीं है। विरोध का सबसे बड़ा कारण है, हम अपने धर्म की सीमा में घुस जाते हैं। और उसी का चश्मा अपनी आँखों पर लगा लेते हैं। हम उससे भिन्न रंग को देखना नहीं चाहते। यदि अन्य धर्मों का निरीक्षण करें, तो समन्वय के तत्त्व इतने हैं कि उस सीमा को तोड़ने के लिए मजबूर होना पढ़ता है। सांप्रदायिकता का पर्दा अधिक दिनों तक टिका रह नहीं सकता। शब्द-भेद के अतिरिक्त अर्थ का एकता अधिक निकट ले आती है। हम अधिक गहराई में न जाकर विकास की ओर बढ़ें और धर्म के साधनों का अभ्यास करें। (क्रमशः)