उपासना

स्वाध्याय

उपासना

उपासना

(भाग - एक)

उपाध्याय यशोविजयजी

वे विद्या के साथ पनपने वाले अहं से नहीं बच सके। अपना प्रभाव बताने के लिए व्याख्यान के समय सामने रखी जाने वाली स्थापनाजी पर चार ध्वजाएँ लगा लीं। लोगों को ये बताने के लिए कि मेरा यश चारों ओर फैला हुआ है। लोगों को अटपटा लगा। पर कहे कौन? अंत में एक वृद्धा ने समझाने की दृष्टि से उन्हें पूछा-गुरुवर! आप बहुत विद्वान् हैं या गौतम स्वामी? उन्होंने कहा-गौतम स्वामी! बुढ़िया का प्रश्न था-तब गौतम स्वामी अपने सामने कितनी ध्वजाएँ लगाते थे? यशोविजयजी की आँखें खुल गई। ध्वजाओं को तोड़कर फेंकते हुए बोले-ओछे को ही अभिमान हुआ करता है। वे तो समुद्र के समान गंभीर थे।
सं0 1740 में पाटण में चौमासा किया। वहाँ ‘संतोष बाई’ की प्रेरणा से अध्यात्मयोगी श्री आनंदघनजी से मिले। उनके सामने दशवैकालिक का प्रथम पद-‘धम्मोमंगलमुक्किट्ठं’ के पचास अर्थ करके अपनी विद्वत्ता का पूरा-पूरा प्रदर्शन करके फूले नहीं समा रहे थे।
आनंदघनजी ने इनके किए गए पचास अर्थों के अतिरिक्त अनेक विचित्र एवं चमत्कारी अर्थ करके इनके अहंकार को चूर-चूर किया। शिक्षित हृदय अहं दूर हो जाने के बाद नम्र भी बहुत होता है। अब उनसे अत्याग्रह करके सारा दशवैकालिक सूत्र पढ़ा। उन्होंने भी दशवैकालिक में ही सारा भगवती सूत्र पढ़ा दिया। वस्तुतः ये उसे ही पढ़ना चाहते थे।

लोंकाशाह

लोंकाशाह सिरोही राज्यांतर्गत ‘अरहटवाडा’ ग्राम के निवासी थे। उनके पिता का नाम हेमाभाई था। वे अहमदाबाद में रहने लग गए। अहमदाबाद में उस समय यति वर्ग का प्रभुत्व और वर्चस्व था। लोंकाशाह के अक्षर सुंदर होने से वे आगमों की प्रतिलिपि करते थे। प्रतिलिपिकार के साथ-साथ गंभीर चिंतक, जिज्ञासु और धर्मतत्त्व के समीक्षक भी थे। प्रतिलिपि करते समय आगमों के अध्ययन के प्रसंग पर उन्हें अनुभव हुआ कि सिद्धांत और साध्वाचार में गहरा अंतर है। पर्याप्त चिंतन-मनन पूर्वक निर्भय होकर एक क्रांति का उद्घोष किया। वह समयोचित उद्घोष कइयों को बहुत अच्छा लगा। अनेक लोग लोंकाशाह के अनुगामी बने। कोट्यधीश सेठ लखमसीभाई को अपनी ओर आकृष्ट कर लेना, लोंकाशाह की बहुत बड़ी सफलता मानी जाने लगी। एक बार कई संघ तीर्थयात्रार्थ जा रहे थे। वर्षा के कारण उन सबको वहाँ रुकना पड़ा जहाँ लोंकाशाह थे। उनके उपदेश से उनमें अनेक सुलभबोधि बने। यहाँ तक कि पैंतालीस व्यक्तियों ने लोंकशाह के सिद्धांतों के अनुरूप श्रमण-दीक्षा ली। चैत्यों में रहना छोड़ दिया। यह वि0सं0 1531 का समय था। वि0सं0 1541 में लोंकाशाह दिवंगत हो गए।
उस समय लोंकागच्छ का शैशव काल ही था। गच्छ का संगठन सुदृढ़ न होने से कुछ समय बाद छिन्न-भिन्न होने लगा। तब लवजी ऋषि, धर्मसिंहजी, धर्मदासजी आदि ने क्रियोद्धार किया।

आचार्य धर्मदासजी

‘धर्मदासजी’ अहमदाबाद जिलांतर्गत सरखेज गाँव के रहने वाले थे। जाति के भावसार थे। पिता का नाम जीवनदास था। घर का वातावरण धर्ममय था-यह पुत्र का धर्मदास नाम ही सूचित करता है। धर्मदासजी ने प्रारंभ में यति तेजसिंहजी के पास धार्मिक शिक्षा पाई थी। श्रावक कल्याणजी के पास दो वर्ष तक पोतियाबंध संप्रदाय की साधना भी की। लवजी ऋषि तथा धर्मसिंघजी से भी समय-समय पर धर्मचर्चाएँ कीं। पर आत्म-संतोष नहीं हुआ। अंत में माता-पिता की आज्ञा लेकर वि0सं0 1700 में अदम्य साहस से सात साथियों के साथ जैन दीक्षा ग्रहण की।

(क्रमशः)