आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

 प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

शक्ति-संगोपन की साधना

मूल बात तो यह है कि साधक को शक्ति प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार का तप करना ही नहीं है। विशुद्ध भाव से कर्म-निर्जरा की दृष्टि से साधना और तपस्या हो उससे प्रासंगिक रूप में शक्ति उत्पन्न हो जाए तो साधक उसे सहन करे, अपने भीतर पचा ले। शक्ति दो प्रकार की होती है-तारक और मारक। तेजोलब्धि एक शक्ति है। इसका विकट रूप जब प्रकट होता है तो एक साथ साढ़े सोलह देश भस्मसात हो सकते हैं। इस शक्ति वाला साधक किसी व्यक्ति पर अनुग्रह करे तो वह मरता-मरता बच जाता है। मारने और बचाने के लक्ष्य से शक्ति का प्रयोग निषिद्ध है, इसी दृष्टि से यह कहा गया है कि शक्ति के अर्जन और संवर्धन के साथ उसका संगोपन बहुत आवश्यक है।
कोई भी साधक तपस्या, आतापना, ध्यान आदि साधना के प्रयोग किस उद्देश्य से करे? इस प्रश्न को समाहित करते हुए आगमों में बताया गया है-‘साधक इस लोक के लिए तप और आचार का प्रयोग न करे, परलोक के लिए तप और आचार का प्रयोग न करे, यश, कीर्ति, पूजा-प्रतिष्ठा आदि के लिए तप और आचार का प्रयोग न करे। विशोधन और कर्म-निर्जरण-यही लक्ष्य रहे साधना का। इस लक्ष्य को सामने रखकर चलने वाला ही व्यक्ति का संगोपन कर सकता है।’
एक बात बार-बार सुनने में आती है कि जहाँ इतना बड़ा संघ हो, वहाँ चमत्कार भी होना चाहिए। चमत्कार को नमस्कार की दुहाई देकर उक्त बात की पुष्टि की जाती है। एक दृष्टि से बात ठीक है, आकर्षण पैदा करने वाली है। कभी-कभी मन में भी आ जाती है किंतु आगे चलकर यही चिंतन रहता है कि जहाँ कहीं ऐसे प्रयोग हुए हैं, उन्हें तात्कालिक लाभ अवश्य मिला है, उनकी ख्याति भी हुई है, उन्हें राज्याश्रय और जनाश्रय भी प्राप्त हुआ है। पर उससे आगे का परिणाम सुखद नहीं रहा। शक्ति का प्रयोग करने वालों की गति पहलवान जैसी होती है। पहलवान कितने शक्तिशाली होते हैं। वे अपने हाथ के सहारे भारी-से-भारी वाहन रोक लेते हैं, सीने के बल पर हाथी रोक लेते हैं। कंठ-मणि के सहारे लोह-कील तोड़ देते हैं और भी तपा नहीं क्या-क्या कर लेते हैं। किंतु कुछ वर्षों बाद उनका शरीर जर्जर हो जाता है, वे उठते-बैठते भी काँपते रहते हैं। इन सब स्थितियों को ध्यान में रखकर हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शक्ति-प्रयोग का रास्ता निरापद नहीं है।
शक्ति के प्रयोग पर नियंत्रण के साथ उसके अर्जन और संवर्धन पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होना चाहिए। क्योंकि ऊर्जा का संवर्धन हुए बिना साधना की अग्रिम भूमिकाओं पर आरोहण दुरूह हो जाता है।
साधना एक ऐसा तत्त्व है, जिसे अपनी-अपनी कसौटी पर कसने का काम हो रहा है। कुछ व्यक्ति उसे आनंद का अक्षय स्रोत मानते हैं तो कुछ उससे निराशा और झुंझलाहट की वृत्ति को बढ़ावा देते हैं।
किसी समय एक गाँव में मंदिर बन रहा था। वहाँ अनेक व्यक्ति काम में लगे थे। एक आदमी उधर से गुजरा। उसने एक श्रमिक से पूछा-‘भाई! क्या कर रहे हो? वह झल्लाकर बोला-‘देखते नहीं हो, पत्थर तोड़ रहा हूँ।’ कुछ दूर जाकर उसने दूसरे श्रमिक से वही प्रश्न पूछा। वह बोला-‘भाई! पेट पानी है, इसके लिए क्या-क्या नहीं करते?’ तीसरे श्रमिक से जब यही बात पूछी गई तो वह खुशी में झूमता हुआ बोला-‘भगवान का मंदिर बना रहा हूँ।’
एक ही काम करने वाले तीन व्यक्तियों की अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ इस बात को स्पष्ट करती हैं कि किस स्थिति में कौन व्यक्ति कितना लाभान्वित होता है, यह उसकी ग्रहणशीलता पर निर्भर है। साधना के क्षेत्र में प्रवेश पाने वाले व्यक्तियों में भी उत्तेजना, निराश और आनंद निमित्त रूप में काम कर सकते हैं। पर जो सच्चे मन से साधना करते हैं वे उत्तेजना और निराशा से मुक्त होकर आनंद का अनुभव कर सकते हैं।
शास्त्रों में दो प्रकार की वृत्तियाँ बताई गई हैं-सिंहवृत्ति और सियारवृत्ति। कुछ व्यक्ति सिंहवृत्ति से मुनि जीवन स्वीकार करते हैं और सियारवृत्ति से पालते हैं। कुछ व्यक्ति सियारवृत्ति से साधुत्व ग्रहण करते हैं, पर उसकी अनुपालना में सिंहवृत्ति जग जाती है। कुछ व्यक्ति ग्रहण और पालन दोनों स्थितियों में सियारवृत्ति रखते हैं तो कुछ साधक सिंहवृत्ति से ही आगे आते हैं और उसे अंत तक निभाते हैं।
हमारे ध्यान के साधक किसी भी वृत्ति से साधना-शिविर में प्रवेश करें, यहाँ से निकलते समय सिंहवृत्ति जग जानी चाहिए। इसी वृत्ति से वे अधिकाधिक आनंद का अनुभव कर सकते हैं।

स्वयं सत्य खोजें

बीमारी जितनी लंबी होती है, चिकित्सा भी उतनी ही लंबी हो जाती है। तीन प्रकार की बीमारियाँ होती हैं-शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक। वात, पित्त और कफ के विषम हो जाने पर शरीर में जो रोग पैदा होते हैं, वे शारीरिक बीमारियाँ हैं। चिंता, संत्रास, घुटन, तनाव, विक्षिप्तता आदि मानसिक बीमारियाँ हैं। उत्तेजना, अहं, छलना, लालसा आदि आध्यात्मिक बीमारियाँ हैं। शारीरिक बीमारी की चिकित्सा में महीनों और वर्षों का समय लग जाता है। क्योंकि लंबे समय तक जमकर रहने वाले किराएदार को भी हटाना कठिन हो जाता है फिर बीमारी तो शरीर के रोम-रोम में व्याप्त होकर रहती है। मानसिक और आध्यात्मिक बीमारी का शमन करने के लिए ध्यान का एक दिवसीय प्रयोग कराया जाता है। एक प्रयोग से अपेक्षित लाभ का अनुभव न हो तो दूसरी-तीसरी बार भी प्रयोग किया जाता है।
मूलतः सोचने की बात यह है कि बीमारी क्यों होती है? मेरे अभिमत से नब्बे प्रतिशत बीमारियों का कारण है-व्यक्ति का अपना अज्ञान, अनुभवहीनता, अविवेक और लापरवाही। प्रेक्षाध्यान शिविर में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार का स्वास्थ्य प्राप्त हो सकता है। यहाँ आने वाले साधक को जागरूक बनाया जाता है। उसकी चर्या नियमित हो जाती है। समय पर जागरण और समय पर शयन। भोजन-पानी की नियमितता, घूमने-फिरने की नियमितता। और तो क्या, सोचना भी नियमित। सुबह से शाम तक जो कुछ करना होता है, वह सब नियमित हो जाता है। उस स्थिति में बीमारी को खुराक नहीं मिलती है। उचित खुराक और पोषण के अभाव में पुरानी बीमारी आगे नहीं बढ़ती और नई बीमारी पैदा नहीं होती। जिस अज्ञान, अविवेक और प्रमाद के कारण बीमारी का जन्म हुआ, उन कारणों के न रहने पर बीमारी कैसे रहेगी? ‘कारणे नष्टे कार्यं स्वमेव नश्यति’। यह न्याय-शास्त्र का नियम है। जिस दिन से जीवन-चर्या नियमित होने लगती है, उसी दिन से आरोग्य मिलने लग जाता है और व्यक्ति को राहत मिल जाती है। (क्रमशः)