संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(27) आत्मनः स्वप्रकाशाय, बंधनस्य विमुक्तये।
आनंदाय मया शिष्य! धर्मप्रवचनं कृतम्।।

शिष्य मेघ! आत्मा के स्व-प्रकाश के लिए, बंधन की मुक्ति के लिए और आनंद के लिए मैंने धर्म का प्रवचन किया है।

(28) शुभाशुभफलैरेभिः, कर्मणां बंधनैर्ध्रुवम्।
प्रमादबहुलो जीवः, संसारमनुवर्तते।।

प्रमादी जीव शुभ-अशुभ फल वाले कर्मों के इन बंधनों से संसार में पर्यटन करता है।

(29) शुभाशुभफलान्यत्र, कर्मणां बंधनानि च।
छित्वा मोक्षमवाप्नोति, अप्रमत्तो हि संयतिः।।

अप्रमत्त मुनि कर्मों के बंधनों और उनके शुभ-अशुभ फलों का छेदन कर मोक्ष को प्राप्त होता है।
धर्म अप्रमत्त-अवस्था है और अधर्म प्रमत्त-अवस्था। प्रमाद का स्वरूप इस प्रकार हैµ
चार कषायµक्रोध, मान, माया, लोभ।
चार विकथाµस्त्रीकथा, देशकथा, राजकथा, भोजनकथा।
पाँच इंद्रियाँµस्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र।
इनके विषयों में आसक्ति, मन, वाणी और शरीर की इनमें प्रवृत्ति तथा निद्रा प्रमाद है और जो निवृत्ति है वह अप्रमाद है।
अप्रमत्त आत्मा कर्म-बंधनों से मुक्त होकर शुद्ध स्वरूप में ठहरती है। प्रमादी आत्मा संसार में भ्रमण करती है। संसार दुःख है और मुक्ति सुख। धर्म की अपेक्षा इसलिए है कि उससे अनंत आनंद उपलब्ध होता है।

(30) एकमासिकपर्यायो, मुनिरात्मगुणे रतः।
व्यन्तराणां च देवानां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्।।

एक मास का दीक्षित आत्मलीन मुनि व्यंतर देवों के सुखों को लाँघ जाता है, उनसे अधिक सुखी बन जाता है।

(31) द्विमासमुनिपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः।
भवनवासिदेवानां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्।।

दो मास का दीक्षित मुनि भवनपति (असुरवर्जित) देवों के सुखों को लाँघ जाता है।

(32) त्रिमासमुनिपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः।
देवासुरकुमाराणां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्।।

तीन मास का दीक्षित आत्मलीन मुनि असुरकुमार देवों के सुखों को लाँघ जाता है।

(33) चातुर्मासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः।
ज्योतिष्कानां ग्रहादीनां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्।।

चार मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि ग्रह आदि ज्योतिष्क देवों के सुखों को लाँघ जाता है।
(क्रमशः)