उपासना

स्वाध्याय

उपासना

आचार्य धर्मदासजी

कहा जाता है प्रथम दिन धर्मदास मुनि को भिक्षा में एक कुम्हार के यहाँ से राख मिली। वह चारों ओर उड़ गई। श्री धर्मसिंहजी ने राख के शकुन पर टिप्पणी करते हुए कहाµमैंने जब क्रियोद्धार किया था तब प्रथम भिक्षा में चूरमे का मोदक मिला था। वह मेरे पात्र में चिपक गया था। अतः मेरा संप्रदाय ज्यादा नहीं फैलेगा पर तुम्हारा संघ राख की भाँति सभी ओर फैलेगा। बात बनी भी वही। आज का स्थानकवासी संप्रदाय प्रमुखतः उन्हीं के संघ की शाखा-प्रशाखाएँ हैं। उनके निन्यानबे शिष्य बने। उन्होंने निन्यानबे शिष्यों में से बाईस को आचार्य पद दिया। इसलिए उनकी वे शाखाएँ बाईस संप्रदाय कहलायी। आगे जाकर स्थानकवासी, साधुमार्गी, ढूँढ़िया, ढँ़ूढेरा, बारहपंथी आदि नामों से पहचाने जाने लगे। अंत में उन्होंने अपने आपको अनायास ही बलिदान की बलिवेदी पर चढ़ा दिया।
घटना यों घटी। वि0 1772 में उनके एक शिष्य ने धारा नगरी में अनशन किया। किंतु वह अपनी दुर्बलता से उस अनशन में स्थिर नहीं रह सका तब उग्रविहार करके आचार्य धर्मदासजी उज्जयिनी से चलकर धारा नगरी में पहुँचे। उसे समझाया पर कायरता आ जाने के बाद स्थिरता कैसे आ सकती है। सहसा अपने संघ का भार अपने शिष्य मूलचंदजी को सौंपकर स्वयं अनशन करके उसी पट्ट पर लेट गए। संघ का मस्तक ऊँचा रखने के लिए अपने आपको झोंक दिया। केवल तीन दिन के अनशनपूर्वक वि0सं0 1772 में दिवंगत हो गए।

आचार्य रघुनाथजी

आचार्य रघुनाथजी आचार्य भूधरजी के शिष्य थे। वे सोजत (राज0) के निवासी थे। उनका जन्म वि0सं0 1766 में हुआ था। उनके पिता का नाम नथमलजी था। एक बार रघुनाथजी अपने परम मित्र की मृत्यु के विरह से व्यथित होकर चामुंडा देवी के मंदिर में शांति पाने अपने आपको बलि करने जा रहे थे। मार्ग में आचार्य भूधरजी से उनका संपर्क हो गया। उन्होंने प्रतिबोध दिया। फलतः संबंध की हुई रत्नवती कन्या को छोड़कर वि0सं0 1787 में दीक्षित हुए। आचार्य बने। अच्छी तपस्याएँ भी कीं। कुछ ही समय में अच्छे प्रभावशाली आचार्यों की परंपरा में गिने जाने लगे। उन्होंने अपने हाथ से पाँच सौ पच्चीस व्यक्तियों को दीक्षित किया। श्री जेतसिंहजी, जयमलजी, कुशलोजी आदि उनके गुरु भाई थे। श्री टोडरमल जी इनके उत्तराधिकारी थे। अंत में सत्तरह दिन के अनशनपूर्वक अस्सी वर्ष की अवस्था में वि0सं0 1846 माघ शुक्ला 11 को पाली में दिवंगत हो गए।

आचार्य भिक्षु

तेरापंथ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु श्रमण परंपरा के महान् संवाहक थे। उनका जन्म वि0सं0 1783 आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को कंटालिया (मारवाड़) में हुआ। उनके पिता का नाम शाह बल्लूजी तथा माता का नाम दीपां बाई था। उनकी जाति ओसवाल तथा वंश सकलेचा था। आचार्य भिक्षु का जन्म नाम भीखण था। प्रारंभ से ही वे असाधारण प्रतिभा के धनी थे। तत्कालीन परंपरा के अनुसार छोटी उम्र में ही उनका विवाह हो गया। वैवाहिक जीवन में बंध जाने पर भी उनका जीवन वैराग्य-भावना से ओतप्रोत था। धार्मिकता उनकी रग-रग में रमी थी। पत्नी भी उन्हें धार्मिक विचारों वाली मिली। पति-पत्नी दोनों ही दीक्षा लेने के लिए उद्यत हुए, किंतु नियति को शायद यह मान्य नहीं था। कुछ वर्षों बाद पत्नी का देहावसान हो गया। भीखणजी अकेले ही दीक्षा लेने को उद्यत हुए, पर माता ने दीक्षा की अनुमति नहीं दी। तत्कालीन स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्यश्री रघुनाथजी के समझाने पर माता ने कहाµ‘महाराज! मैं इसे दीक्षा की अनुमति कैसे दे सकती हूँ क्योंकि जब यह गर्भ में था तब मैंने सिंह का स्वप्न देखा था। उस स्वप्न के अनुसार यह बड़ा होकर किसी देश का राजा बनेगा और सिंह जैसा पराक्रमी होगा।’ आचार्य रघुनाथ जी ने कहाµ‘बाई! यह तो बहुत अच्छी बात है। राजा तो एक देश में पूजा जाता है, तेरा बेटा तो साधु बनकर सारे जगत् का पूज्य बनेगा और सिंह की तरह गूँजेगा।’ इस प्रकार आचार्य रघुनाथजी के समझाने पर माता ने सहर्ष दीक्षा की अनुमति दे दी।

(क्रमशः)