युगप्रधान के प्रेरणास्रोत - आचार्यश्री तुलसी
आचार्यश्री तुलसी के 109वें जन्म दिवस पर
डॉ. मुनि मदन कुमार
अणुव्रत युगधर्म है, मानव मात्र को संयम की ओर आकृष्ट करने की इसमें शक्ति है। अणुव्रत का उद्बोधन है-संयम ही जीवन है। इसमें जीवन का दर्शन समाहित है। संयम के बिना शांति और शांति के बिना सुख की कल्पना ही दुरूह है। व्यक्ति शांति से लेकर विश्व शांति का मूलाधार संयम है। पदार्थ की प्रचुरता के बावजूद मनुष्य अशांति भोग रहा है, तब यह प्रश्न स्वाभाविक है-क्यों? उत्तर स्पष्ट है कि शांति का संबंध वैभव और विलासिता से नहीं, किंतु संयम से है। अणुव्रत प्रवर्तक आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से इस सच्चाई को उजागर करने का सार्थक श्रम किया। उन्होंने खूब देशाटन किया, खूब साहित्य लिखा, खूब जनसंपर्क किया और खूब प्रवचन कर जनता-जनार्दन को आलोकमय बनाया। वे इस धर्म-परायण देश के पहले धर्मगुरु थे जिन्होंने उपासना को गौण कर आचार-शुद्धि का बिगुल बजाया। संप्रदायविहीन धर्म की कल्पना कर नैतिकताविहीन धर्म की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया। उन्होंने कहा जो नैतिक है वही धार्मिक है तथा जो नैतिक नहीं है वह धार्मिक भी नहीं है। इस तरह धर्म के साथ नैतिकता को जोड़कर उन्होंने धर्म को युगीन और वास्तविक रूप प्रदान किया।
अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से आचार्यश्री तुलसी मानव धर्म के महान व्याख्याकार बने। उनका चिंतन और दृष्टिकोण सांप्रदायिक संकीर्णता से सर्वथा मुक्त था। अतः वे सार्वभौम धर्म के प्रणेता बनें। व्यापक दृष्टिकोण के कारण वे मानवतावादी धर्माचार्य के रूप में प्रख्यात हुए। उन्होंने अपने परिचय में कहा-”मैं सबसे पहले मानव हूँ, उसके बाद धार्मिक हूँ और तद्नंतर धर्माचार्य हूँ।“ उन्होंने अपने संदेशामृत में अध्यात्म और नैतिकता के विकास पर सर्वाधिक बल दिया। उनका स्पष्ट उद्घोष था कि जीवन में सुख-शांति के लिए नीति मार्ग का अनुसरण करो। अनीति से अर्जित धन और पदार्थ सुखदायी नहीं बनेगा। वे जनता के जीवन-परिष्कार के लिए कहते थे-”मुझे वोट नहीं चाहिए, मुझे नोट नहीं चाहिए मुझे तुम्हारे जीवन की खोट चाहिए।“ जीवन की खोट माँगने वाले वे विलक्षण संत थे। अपने ओजस्वी विचारों से उन्होंने लाखों लोगों के हृदय पर शासन किया। उनकी वाणी और व्यक्तित्व में चमत्कार था और उनकी स्वल्प सन्निधि पाकर ही भक्त-अभक्त चमत्कृत हो जाते थे। अणुव्रत आंदोलन उनकी सबसे बड़ी देन कही जा सकती है। एक संप्रदाय के आचार्य द्वारा असांप्रदायिक धर्म का प्रवर्तन अद्भुत घटना कही जा सकती है।
राष्ट्रऋषि आचार्यश्री तुलसी 22 वर्ष की वय में तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य बन गए, यह एक आश्चर्य है किंतु इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि 58 वर्षों तक तेरापंथ पर शासन करने के पश्चात् आचार्य पद का विसर्जन कर दिया। उन्होंने सोचा कि मेंने निर्विशेषण धर्म (मानव धर्म) का प्रवर्तन किया तो मैं स्वयं निर्विशेषण क्यों न बन जाऊँ? कितना उदात्त था उनका चिंतन और क्रियान्वयन? सचमुच वे नैतिक मूल्यों के प्रतिष्ठापक और महामानव थे। वे दृष्टिसंपन्न और गुणग्राही थे। विरोध को विनोद समझने वाले शलाका पुरुष थे। वे सत्यं, शिवं और सौंदर्य के संगम पुरुष थे। उनका मुखमंडल प्रसन्नता का निकेतन था। उनके अंतःकरण में वात्सल्य और करुणा का सागर लहराता था तथा वाणी अमृत के निर्झर की तरह आनंददायी थी। उनका संपूर्ण जीवन अप्रमत्तता और परोपकार-परायणता का प्रवर निदर्शन था। वे जन-जन के पूजनीय और प्रेरणास्रोत थे।
युगद्रष्टा आचार्यश्री तुलसी विक्रम संवत् 2054 आषाढ़ कृष्णा तृतीया को इस संसार से अदृश्य हो गए, किंतु फिर भी वे लाखों लोगों के हृदय में बसे हुए हैं। उनकी पावन स्मृतियाँ मन को पुलकन से भरने वाली हैं। उनकी मनमोहक मुद्रा और चुंबकीय व्यक्तित्व सदा मन को आह्लादित करता है। उनकी यह सबसे बड़ी विशेषता थी कि वाणी का ओज और चेतना का पराक्रम कभी शिथिल नहीं पड़ा। वे सिंह की तरह सदा गूँजते रहे। भय और निराशा उनके शब्द कोश में ही नहीं थे। दिव्यता, अप्रमत्तता और शुचिता के वे संगम पुरुष थे। ‘ज्यों की त्यों धर दीनी रे चदरिया’ के वे सार्थक प्रतीक बनें। उनका जीवन द्वितीया के चाँद की तरह सदा प्रवर्द्धमान रहा। उनके महाप्रयाण के पश्चात् दिल्ली में आयोजित स्मृति सभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था-”आचार्य श्री तुलसी अग्रणी संत, चिंतक और कर्मयोगी थे। वे महान् दृष्टिसंपन्न आचार्य थे। सार्वजनिक जीवन की शुद्धता के लिए उन्होंने अहर्निश कार्य किया। मनुष्यों को जोड़ देने की कला और समस्याओं के समाधान का विज्ञान उनके पास था। उन्होंने आचार्य पद छोड़ दिया, मानो वे महाप्रस्थान की तैयारी कर रहे थे।“ राष्ट्रीय समाचार पत्र दैनिक हिंदुस्तान के मुख्य संवाददाता रमाकांत गोस्वामी ने एक बार मुझसे (मुनि मदन कुमार) मिलन-प्रसंग पर कहा था कि राष्ट्रऋषि आचार्यश्री तुलसी जैन धर्म के शंकराचार्य थे। वे ‘भारत रत्न’ के सच्चे अधिकारी हैं। उन्होंने अणुव्रत आंदोलन को प्रभावी ही नहीं बल्कि जिस आध्यात्मिक ढंग से चलाया, वह एक जबर्दस्त मिशाल है। वे नैतिक मूल्यों के पर्याय बन गए थे। आचार्य श्री महाप्रज्ञ के शब्दों में आचार्यश्री तुलसी की कमी मानव जाति को सदा अखरेगी। वे सिद्धपुरुष थे। उनकी शीतलता, तेजस्विता और गंभीरता अलौकिक थी। आचार्यश्री तुलसी का इतिहास तेरापंथ या जैन समाज का इतिहास नहीं, बल्कि मानव जाति का इतिहास है। प्रामाणिकता, सच्चाई और भारतीय संस्कृति का इतिहास है।