आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा

स्वयं सत्य खोजें

प्रयोग शुरू करते ही जो राहत मिलती है, मेरी दृष्टि से वह तात्कालिक लाभ है। आगम की भाषा में वह बीमारी का उपशम हुआ, क्षय नहीं। उपशम उपशम है वह कभी भी उभर सकता है। क्षय में बीमारी का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। उपशम से ही संतुष्ट होकर पुनः लापरवाह हो जाना, एक प्रकार से धोखा खाना है। क्योंकि ऊपर-ऊपर से उपशम और क्षय की अवस्था एक समान दिखाई देती है, पर दोनों में अंतर बहुत है।
मोहकर्म का उपशम भी होता है और क्षय भी। उपशम ग्यारहवें गुणस्थान में होता है और क्षय बारहवें गुणस्थान में। इन दोनों ही गुणस्थानों में कषाय शांत रहता है, यथाख्यात चारित्र रहता है। फिर भी इन दोनों में एक बड़ा अंतर है। ग्यारहवें गुणस्थान में उपशांत हुआ कषाय अंतर्मुहूर्त के बाद फिर उभरता है और उससे साधक का पतन निश्चित है। बारहवें गुणस्थान में कषाय क्षीण हो जाता है, इसलिए वहाँ पतन की संभावना समाप्त है। साधक आगे बढ़ता है और केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।
मैं शिविर के साधकों को सूचित करना चाहता हूँ कि दस दिन की साधना से आपको जो लाभ मिला है, वह उपशम है। खाद्य संयम और नियमित चर्या-इन दो कारणों से वृत्तियों, विचारों और स्वास्थ्य में सुधार हुआ है। उत्तेजना कम हुई है। आलस्य की मात्रा घटी है। अनपेक्षित नींद उड़ी है। किंतु साधना का क्रम टूटा कि ये सब चीजें पुनः उभर सकती हैं। इसलिए साधना-क्रम को स्थायी बनाकर क्षायिक भाव की स्थिति प्राप्त करनी है।
शिविर-काल में साधकों को जो कुछ सिखाया गया है, वह एक प्रकार का पथ-दर्शन है। अब उसके आधार पर अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार नए प्रयोग करते रहना चाहिए क्योंकि जीवन-भर, मार्ग-दर्शन देना गुरु का काम नहीं है। वे जब तक आवश्यक समझते हैं, पथ दिखाते हैं, फिर शिष्य को स्वयं अपनी मंजिल तय करने के लिए छोड़ देते हैं।
एक शिष्य ने वर्षों तक गुरु की सन्निधि में रहकर साधना की। जब उसका अभ्यास परिपक्व हो गया तो गुरु ने उसको घर जाने की अनुमति दे दी। शिष्य विनत भाव से बोला-‘गुरुदेव! मैं जा रहा हूँ, मेरा मार्ग-दर्शन कीजिए।’ गुरु ने हाथ में प्रज्वलित दीपक लिया और बोेले-‘चलो, शिष्य! मैं तुझे रास्ता दिखाता हूँ।’ गुरुकुल के द्वार तक गुरु उसका हाथ अपने हाथ में लेकर चले। शिष्य ने द्वार से बाहर कदम रखा और गुरु ने उसका हाथ छोड़ दिया। हाथ छोड़ते ही उन्होंने दीपक भी बुझा दिया और वापस मुड़ने लगे। शिष्य इस स्थिति से घबराकर बोला-‘गुरुदेव! यह क्या? न आप साथ चल रहे हैं, न हस्तावलंबन दे रहे हैं और न किसी अन्य सहायक को मेरे साथ भेज रहे हैं। इससे भी आगे की बात कहूँ तो आपने दीपक भी बुझा दिया है। अब मैं इस अंधेरे में अपना पथ कैसे देख सकूँगा?’ गुरु एक मीठी मुस्कान बिखेरते हुए बोला-‘शिष्य! जाओ, अपना रास्ता स्वयं खोजो, और किसी को साथ रखने की बात छोड़कर स्वयं को साथ रखो। विकास का रास्ता बना-बनाया नहीं होता। वह फूलों से भरा भी नहीं होता। उस काँटों-भरे बीहड़ रास्ते पर निष्ठा और दृढ़ संल्प के साथ चलने वाला निश्चित रूप से मंजिल पा लेता है। तुम मुझे भूल जाओ और निर्भय होकर आगे बढ़ते रहो। तुम्हारा पथ स्वयं प्रशस्त होता रहेगा।’
मैं भी यहाँ उपस्थित सभी शिविर-साधकों से कहना चाहता हूँ कि आप स्वयं समर्थ हैं, सब कुछ कर सकते हैं, फिर स्वयं को दुर्बल क्यों बना रहे हो? आप भूल जाइए इस बात को कि सत्य की खोज हम क्या करें, उसे तो तीर्थंकरों ने पहले ही खोज लिया। हम क्यों प्रयत्न करें? हमारे पूज्य अर्हतों ने जो कुछ खोजा और पाया, हम तो उसी के सहारे चलते रहेंगे। आप सोच सकते हैं किंतु मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि तीर्थंकरों ने कितना ही कुछ खोज लिया हो; आपकी खोज बाकी है। आपके सामने तो अभी भी सघन तिमिर है। आप प्रयत्न करें, किसी के खोजे हुए सत्य पर रुकें नहीं, वह आपके काम नहीं आएगा। आपको अपने पुरुषार्थ से खोज करनी है, इसलिए मैं फिर कहता हूँ कि आप स्वयं सत्य खोजें।
‘अप्पणा सच्चमेसेज्जा’ आप स्वयं सत्य खोजें, यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ। और कोई साधारण व्यक्ति नहीं कह रहा है। यह बात उन्होंने कही है जिन्होंने सत्य खोज लिया है, सत्य को पा लिया है। उन्होंने कहा-‘हमने जो खोजा है वह तुम्हारे लिए बासी है। बासी भोजन करना समझदारी नहीं है, इसलिए अपने पुरुषार्थ से ताजा भोजन तैयार करो और उससे विशेष पोषण प्राप्त करो।
यह बात भगवान महावीर ने कही। उनका संकेत था-‘मइमं पास’ प्रज्ञा-पुरुषो! तुम मेरी बात पर रुको मत, उससे आगे जो कुछ है, उसे देखो। भगवान बुद्ध ने कहा-‘परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचः न तु गौरवात्’ भिक्षुओ! मैंने जो कुछ कहा है, उसकी परीक्षा करने के लिए ही उसे ग्रहण करो। बुद्ध ने कह दिया, इस गुरुता के भाव से उसे ग्रहण करने की जरूरत नहीं है।
आचार्य भिक्षु ने अपने शिष्यों को संबोधित कर कहा-साधुओ! मैंने जो कुछ कहा है, उसे अंतिम मत मानो। अपनी समझ और बुद्धि को काम में लो, अपनी क्षमता से खोज करो। संभव है तुम्हें कोई इससे भी अच्छा रास्ता उपलब्ध हो जाए। एक बार उनके शिष्यों ने उनसे पूछा-‘गुरुजी! आप हमारी आस्था के केंद्र हैं, आप हमें बहुत अच्छे साधु प्रतीत होते हैं। पर हम आपसे पूछना चाहते हैं कि आपसे भी अधिक साधु मिल जाए तो आप क्या करेंगे? उन्होंने बिना एक क्षण सोचे शिष्यों से कहा-‘यदि वे मुझसे बड़े होंगे तो मैं उनके चरणों में लोट जाऊँगा और छोटे होंगे तो अपनी छाती से लगा लूँगा।’
कितना ऋतु दृष्टिकोण है यह, सत्य की खोज का। उन्होंने हमको असांप्रदायिक धर्म का दृष्टिकोण दिया। उन्होंने कहा-यह जरूरी नहीं है कि जैन कहलाने वाला ही तरेगा या तेरापंथी कहलाने वाला ही तरेगा। जिस व्यक्ति को सत्य मिल गया, वह जैन और तेरापंथी न होने पर भी निश्चित रूप से तरेगा। उनके इसी उदार दृष्टिकोण की फलश्रुति है कि उन्होंने मिथ्यादृष्टि के सत्य को भी सत्य कहकर गाया, उसकी सत्प्रवृत्तियों को भगवान की आज्ञा में बताया। हम आज भी उनके बहुत-बहुत आभारी हैं, जिनसे हमें सत्यशोध का ऐसा ऋजु दृष्टिकोण मिला है।
इस दृष्टि से मैं शिविर-साधकों को कहना चाहता हूँ कि आप सदा-सदा मार्गदर्शन की अपेक्षा न रखें। मैं फिर कहता हूँ-आप स्वयं सत्य खोजें, स्वयं प्रयोग करें, संभव है आपको कोई नया सत्य मिल जाए। इसलिए आप रुको मत, चलते चलो, स्वयं सत्य खोजो और उसका साक्षात्कार करो। सत्य की मिठास जिसे उपलब्ध हो जाती है, वह उसे कभी छोड़ नहीं सकता। पर इसके लिए साधना की गहराई में उतरना है। गहराई में उतरने बिना झूठी समझदारी का चोगा पहनकर व्यक्ति किसी को धोखा तो दे सकता है, पर सत्य को नहीं पा सकता।

(क्रमशः)