दोषों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण रूपी स्नान आवश्यक : आचार्यश्री महाश्रामण
ताल छापर, 13 अक्टूबर, 2022
परम पावन, परम श्रद्धेय आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र आगम की विवेचना करते हुए फरमाया कि भगवान महावीर विराजमान थे, उनके पास अन्य परंपरा के स्थविर भगवंत आते हैं। अन्य परंपरा भगवान पार्श्व की चल रही थी। उन स्थविरों ने प्रश्न पूछा कि यह लोक है वह असंख्येय प्रदेशात्मक है। असंख्येय प्रदेशात्मक में अनंत दिन-रात उत्पन्न हो गए हैं, होते हैं, होंगे, यह बात ऐसे ही है क्या?
भगवान ने उत्तर दियाµहाँ होता है। लोक सीमित है, पर दिन-रात अनंत हुए हैं, होंगे। भगवान पार्श्व ने लोक को शाश्वत बताया है, अनादि अनंत बताया है। उन्होंने भी तो लोक को सीमित ही बताया है। भगवान से प्रभावित होकर वंदन-नमस्कार कर स्थिविर बोले भंते! अब हम आपसे पंच महाव्रत रूप धर्म को सप्रतिक्रमण स्वीकार कर विहार करना चाहते हैं।
भगवान ने उसकी स्वीकृति दे दी। पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर वे अंत समय में कई मुक्ति को प्राप्त हो गए। उनमें से कुछ देव लोकों में चले गए। इस असंख्येय लोक में अनंत जीव रहते हैं। एक जीव के असंख्य-असंख्य प्रदेश होते हैं। पुद्गल तो कितने हैं, जो इस सीमित लोक में स्थापित हो जाते हैं। 45 लाख योजन सिद्ध क्षेत्र में अनंत सिद्ध विराजमान हैं।
भगवान पार्श्व की परंपरा में रोज प्रतिक्रमण आवश्यक नहीं था पर भगवान महावीर की परंपरा में रोज प्रतिक्रमण होता था। चारित्रात्माओं के लिए दोनों समय प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है। श्रावक प्रतिक्रमण भी होता है। इससे स्वाध्याय हो जाता है, प्रेरणा मिल जाती है और दोषों की शुद्धि हो सकती है। प्रतिक्रमण एक प्रकार का स्नान होता है, इसमें प्रमाद न हो। यह हमारे लिए हितकर, क्षेमंकर, शिवकर, शिवंकरण हो सकता है।
प्रतिक्रमण का अर्थ है कि अपने स्थान से दूसरे स्थान में प्रमाद से जाना हो गया, वापस वहीं लौटना यह प्रतिक्रमण होता है। एक परंपरा के साधु दूसरी परंपरा के साधु को वंदन-नमस्कार करें, यह जरूरी नहीं। अपनी-अपनी मान्यता होती है। अपनी-अपनी व्यवस्था का यथोचित् सम्मान रखना चाहिए। भगवान महावीर ने अर्हत पार्श्व की बात का उल्लेख किया है, कहीं पर भी उनकी बात का खंडन नहीं किया है। उनकी बात को उदित किया है।
पूज्यप्रवर ने कालू यशोविलास का विवेचन किया। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
जैन विश्व भारती द्वारा प्रज्ञा पुरस्कार सम्मान समारोह का आयोजन पूज्यप्रवर की सन्निधि में हुआ। सलिल लोढ़ा ने वर्ष-2021 के प्रज्ञा पुरस्कार डॉ0 कौशल बैद, कनाड़ा को प्रदान करने की घोषणा की। पुरस्कार प्रदाता परिवार की ओर से उम्मेदसिंह दुगड़ ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। डॉ0 कौशल बैद ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की।
पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया कि प्रज्ञा एक अच्छे अर्थ से युक्त शब्द है। प्रज्ञा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से निष्पन्न होने वाली ज्ञान चेतना है। प्रज्ञा का सदुपयोग होता रहे। वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में जो कार्य करना होता है, अन्वेषण की गहराई में जाना होता है। वो इतना ज्ञान की गहराई में चला जाता है कि कुछ अंशों में साधु जैसा हो जाता है। जिनमें प्रज्ञा है, वो अपनी प्रज्ञा का अच्छा उपयोग करते रहें। साथ में अध्यात्म चेतना भी हो। छोटी अवस्था पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया कि प्रज्ञा एक अच्छे अर्थ से युक्त शब्द है। प्रज्ञा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होने से निष्पन्न होने वाली ज्ञान चेतना है। प्रज्ञा का सदुपयोग होता रहे। वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में जो कार्य करना होता है, अन्वेषण की गहराई में जाना होता है। वो इतना ज्ञान की गहराई में चला जाता है कि कुछ अंशों में साधु जैसा हो जाता है। जिनमें प्रज्ञा है, वो अपनी प्रज्ञा का अच्छा उपयोग करते रहें। साथ में अध्यात्म चेतना भी हो। छोटी अवस्था में प्रज्ञा का विकास होना, तत्त्व की गहराई में पैठना अच्छी बात है। विज्ञान की खोज एक सत्य का कार्य है। अध्यात्म की साधना में भी सत्य उभरकर सामने आता है। दोनों का लक्ष्य अलग हो सकता है। यह प्रज्ञा पुरस्कार की चेतना और अध्यात्म की चेतना में विकास कराने वाला हो। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।