कालूगणी की निस्पृहता और दायित्व बोध संपूर्ण संघ के लिए प्रेरणादायी: आचार्यश्री महाश्रमण
ताल छापर, 18 अक्टूबर, 2022
कालूगणी अभिवंदना सप्ताह का दूसरा दिन। आज का दिन परमपूज्य कालू और पूज्य माणकगणी व अंतरिम काल विषय पर आधारित है। तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमण जी ने भगवती सूत्र आगम की विवेचना करते हुए फरमाया कि एक प्रश्न किया गया है कि भंते! जीव जीव है या जीव जीव है। एक जीव शब्द का अर्थ है-आत्मा। दूसरे जीव शब्द का अर्थ है-चैतन्य।
जीव चैतन्य है अथवा चैतन्य जीव है। जीव का गुण है-चैतन्य। उत्तर दिया गया गौतम! जीव नियमतः चैतन्य है और चैतन्य भी नियमतः जीव है। यह गुण और गुणी की बात है। जीव गुणी है, चैतन्य गुण है, इसलिए दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। दोनों का अविनाभावी संबंध है।
प्रश्न किया गया, क्या जीव नैश्यिक है या नैश्यिक जीव है। उत्तर दिया गया कि नैश्यिक तो जीव है, पर जीव नैश्यिक हो भी अथवा न भी हो। जीव अमूर्त होता है। वह आँखों का विषय नहीं है। शरीर से जीव निकल सकता है, पर जीव से चैतन्य नहीं निकल सकता। आगमवेत्ता केवलज्ञानी होते हैं। आचार्य तीर्थंकर के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं।
परमपूज्य कालूगणी के जीवन को अनेक खंडों में विभक्त करके देखा जा सकता है। उनके जीवन का तीसरा खंड माणकगणी और अंतरिम काल मान सकते हैं। तीन आचार्यों के काल में वे मुनि के रूप में रहे। मघवागणी कालू के दीक्षा प्रदाता थे तो डालगणी कालू के उत्तराधिकार प्रदाता थे। माणकगणी कालूगणी के अवसर प्रदाता थे।
माणकगणी के महाप्रयाण और डालगणी के नियुक्ति काल के बीच का समय अंतरिम काल है। हमारे धर्मसंघ के लिए वह अवांछनीय सा काल है। ऐसा दिन धर्मसंघ को कभी देखना न पड़े। उस अंतरित काल में मुनि कालू छापर को कार्य करने का मौका मिला। वे युवावस्था के संत थे। उनका नाम भी उस समय आचार्य पद के लिए आया था पर उन्होंने उस समय अपने आपको उस दायित्व के लिए फिट नहीं माना था।
उस अंतरिम काल में गुरुकुल में 14 संत थे। मुनि भीम जी रत्नाधिक संत थे। आज्ञा-आलोयणा का दायित्व तो वे संभालते थे पर व्यवस्था पक्ष को संभालना महत्त्वपूर्ण होता है। मुनि कालू ने वो दायित्व, जिम्मेदारी और निस्पृहता से संभाला था। इससे शिक्षा ली जा सकती है कि हममें पद लिप्सा न आए। लालसा, लोलुपता न हो। साधु संस्था में प्रतिज्ञा ली जाती है कि पद का उम्मीदवार नहीं बनूँगा।
उस विकट परिस्थिति में धर्मसंघ को संभालना भी सेवा का कार्य हो जाता है। मुनि कालूजी रेलमगरा जो बड़े थे, उदयपुर से लाडनूं पहुँचे और उन्होंने संकट मोचक सा दायित्व निभाया था। उन्होंने भी निस्पृहता दिखलाई थी और डालगणी के नाम की घोषणा उस रात्रिकालीन संतों की मीटिंग में की थी। अंतरिम काल पूरा हो गया।
हमारे धर्मसंघ की परंपरा-मर्यादा कालूजी स्वामी रेलमगरा को संबल देने वाले रहे होंगे। जिसके आधार पर ही उन्होंने भावी आचार्य की घोषणा की थी। इस अभिवंदना सप्ताह के अंतर्गत कालूगणी के विभिन्न प्रसंगों पर प्रकाश डाला जा रहा है। हम उनको सार-संक्षेप में जानने का प्रयास कर सकते हैं।
साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने इस प्रसंग पर कहा कि पूज्य माणकगणी ने जब शासन की डोर संभाली थी वो युग परिवर्तन का युग था। मुनि कालू मघवागणी की तरह ही माणकगणी को सम्मान देते थे। वे प्रमाणिक और कर्तव्यनिष्ठ शिष्य की तरह रहते थे। उनकी विनयशीलता और अध्ययनशीलता से माणकगणी बहुत प्रसन्न थे। माणकगणी भावी व्यवस्था किए बिना ही महाप्रयाण कर गए, यह भी एक तरह का अच्छेरा जैसा ही है कि संघ अनाथ हो गया था। पर भैक्षव शासन एकता का एक उदाहरण बना और संघ सनाथ हो गया।
मुनि राजकुमार जी ने भावपूर्ण गीतिका प्रस्तुत की। समणी निर्मलप्रज्ञा जी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। महिला मंडल अध्यक्षा सरिता सुराणा, महिला मंडल द्वारा गीत व प्रवक्ता उपासक इंद्रराज नाहटा ने भी अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्यप्रवर ने तपस्या के प्रत्याख्यान करवाए।
कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने करते हुए कहा कि हमें ग्रहण किए हुए व्रतों के प्रति आस्था रहे, उन्हें खंडित करने का प्रयास न हो।