उपासना
(भाग - एक)
आचार्य भिक्षु
दान-दया के विषय में लौकिक एवं लोकोत्तर भेद रेखा प्रस्तुत कर आचार्य भिक्षु ने जैन समाज में प्रचलित मान्यता के समक्ष नया चिंतन प्रस्तुत किया। उस समय सामाजिक सम्मान का मापदंड दान-दया पर अवलंबित था। स्वर्गोपलब्धि और पुण्योपलब्धि की मान्यताएँ भी दान-दया के साथ जुड़ी हुई थीं। आचार्य भिक्षु ने लौकिक दान-दया की व्यवस्था को कर्तव्य व सहयोग बताकर मौलिक सत्य का उद्घाटन किया। साध्य-साधन के विषय में भी उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था। उनके अभिमत से शुद्ध साधन के द्वारा ही शुद्ध साध्य की प्राप्ति संभव है। उन्होंने कहा-रक्त से सना वस्त्र कभी रक्त से शुद्ध नहीं होता वैसे ही हिंसा प्रधान प्रवृत्ति कभी अध्यात्म के पावन लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकती।’
आचार्य भिक्षु एक कुशल विधिवेत्ता होने के साथ-साथ एक सहज कवि और महान् साहित्यकार थे। उन्होंने राजस्थानी भाषा में लगभग अड़तीस हजार पद्यों की रचना कर जैन साहित्य को समृद्ध किया। आचार्य भिक्षु की साहित्य-रचना का प्रमुख विषय शुद्ध आचार का प्रतिपादन, तत्त्वदर्शन का विश्लेषण एवं धर्मसंघ की मौलिक मर्यादाओं का निरूपण था। उनकी रचनाओं में प्राचीन वैराग्यमय आख्यान भी निबद्ध हैं। उनके द्वारा रचे गए पद्यों में रस, अनुप्रास और अलंकारों के प्रयोग पाठक को मुग्ध कर देते हैं। आचार्य भिक्षु के साहित्य को पढ़कर आधुनिक विद्वान् उन्हें हेगल और काण्ट की तुला से तौलते हैं।
आचार्य भिक्षु जब तक जिए, ज्योति बनकर जिए। उनके जीवन का हर पृष्ठ पुरुषार्थ की गौरवमयी गाथाओं से भरा पड़ा है।
आचार्य भिक्षु के शासनकाल में उनचास साधु और छप्पन साध्वियाँ दीक्षित हुईं। वि0सं0 1860 भाद्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन सिरियारी (मारवाड़) में उन्होंने समाधि-मरण प्राप्त किया। उस समय उनकी आयु सतहत्तर वर्ष की थी।
आचार्य भारमलजी
तेरापंथ के द्वितीय आचार्य भारमलजी का जन्म वि0सं0 1803 में मुहाँ ग्राम (मेवाड़) में ओसवाल वंश के लोढ़ा परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम किशनोजी तथा माता का नाम धारिणी था। दस वर्ष की लघु वय में उन्होंने स्थानकवासी संप्रदाय में मुनि भीखणजी (आचार्य भिक्षु) के हाथ से दीक्षा ग्रहण की। वे बचपन से ही सहज, सरल एवं विनीत होने के साथ-साथ सत्य के महान् पक्षधर थे। आचार्य भीखणजी जब विचार-भेद के कारण स्थानकवासी संप्रदाय से अलग हुए तब भारमलजी स्वामी ने उनका अनुगमन किया। आचार्य भीखणजी के शिष्यों में मुनि भारमलजी उनके परम भक्त और प्रमुख शिष्य थे। आचार्य भिक्षु के आदेश को वे जीवन से भी अधिक मूल्य देते थे।
मुनि भारमलजी स्थिरयोगी, प्रज्ञावान् और सतत श्रमशील थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा आचार्य भिक्षु की सन्निधि में ही हुई। थोड़े ही समय में सहòों गाथाओं को कंठस्थ कर उन्होंने अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया। स्वाध्याय में उनकी विशेष रुचि थी। अनेक बार सायंकालीन प्रतिक्रमण के बाद एक प्रहर रात्रि तक वे खड़े-खड़े उत्तराध्ययन सूत्र की दो हजार गाथाओं का स्वाध्याय कर लेते। वे लिपिकला में बहुत दक्ष थे। उनके अक्षर सुघड़ और सुडौल थे। उन्होंने स्वामीजी द्वारा रचित प्रायः सभी गं्रथों की प्रतिलिपि की। आज भी उनकी वे प्रतियाँ स्वामीजी के ग्रंथों की प्रामाणिक प्रतियों के रूप में मान्य हैं। आचार्य भिक्षु जो रचना करते, शिक्षा देते, लेख व मर्यादा बनाते, भारमलजी स्वामी उन्हें लिपिबद्ध कर स्थायित्व देते जाते। उन्होंने अपने जीवन में लगभग पाँच लाख गाथाओं का लेखन किया।
भारमलजी स्वामी का जीवन आचार्य भिक्षु की प्रयोगशाला था। स्वामी जी संघ में कोई भी नियम लागू करना चाहते तो उसका प्रथम प्रयोग भारमलजी पर ही करते। इसका परिणाम यह होता कि दूसरे साधुओं पर स्वयं उसका असर पड़ता।
(क्रमशः)