आत्मा के आसपास
प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा
आचार्य तुलसी: जीवन परिचय
अणुव्रत आंदोलन के प्रवर्तक
गुलामी की जंजीरों से मुक्त भारत देश को ‘असली आजादी अपनाओ’ का घोष देकर 1 मार्च, 1949 को आचार्य तुलसी ने अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया। जाति, संप्रदाय, प्रांत, वर्ण आदि से ऊपर उठकर नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के उद्देश्य वाला यह अणुव्रत अभियान घर-घर, गली-गली, गाँव-गाँव और देश के कोने-कोने तक पहुँचा। अणुव्रत का प्रथम अधिवेशन दिल्ली में समायोजित हुआ। उस समय न्यूयार्क के सुप्रसिद्ध साप्ताहिक ‘टाइम्स’ (15 मई, 1950) की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी से आचार्यश्री और अणुव्रत को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति उपलब्ध हुई। अणुव्रत के माध्यम से आचार्य तुलसी ने व्यसन-मुक्ति, मानवीय एकता, राष्ट्रीय चरित्र निर्माण एवं विश्व-शांति की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया।
महान यायावर संत
जैनमुनि पदयात्री होते हैं। आचार्य तुलसी ने देशव्यापी पदयात्राएँ कीं। पंजाब से कच्छ तथा कोलकाता से कन्याकुमारी तक भारतभूमि को अपने कदमों से मापा। धर्मक्रांति, धर्म-समन्वय तथा नैतिक मूल्यों की प्रस्थापना के उद्देश्य से आचार्य तुलसी ने लगभग साठ-पैंसठ हजार किमी0 की विस्मयकारी पदयात्रा की। इस क्रम में वे श्रमिक की झोंपड़ी से लेकर राष्ट्रपति भवन और संसद तक पहुँचे। इस दौरान उनका व्यापक जनसंपर्क हुआ। आम आदमी के साथ तो उनका संपर्क हुआ ही, वे देश के प्रख्यात साहित्यकारों, संतों और विशिष्ट व्यक्तियों से भी मिले। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, रामधारीसिंह ‘दिनकर’ आदि कवि, जैनेंद्र कुमार जैसे साहित्यकार, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, काका कालेलकर आदि प्रख्यात राजनीतिज्ञ और डॉ0 राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, डॉ0 राधाकृष्णन् जैसे मूर्धन्य नेताओं पर आचार्यश्री के व्यक्तित्व और विचारों का विशेष प्रभाव पड़ा।
धर्मक्रांति के पुरोधा
आचार्य तुलसी धर्मक्रांति के प्रखर पुरोधा थे। वे उपदेश की अपेक्षा प्रयोग में अधिक विश्वास करते थे। इसलिए प्रवचन सुनना, माला फेरना, पूजा करना, मंदिर जानाµइस अनुष्ठान-प्रधान धर्म को अभिनव वैज्ञानिक-प्रायोगिक रूप दिया। ग्रंथों और पंथों के दायरे से निकालकर उसे मानवता की वेदी पर प्रतिष्ठित किया। प्रामाणिकता, नैतिकता, संयम और अहिंसा-प्रधान मूल्यों को जीवनशैली के साथ जोड़ने का बोध दिया। उनके द्वारा प्रदत्त सर्वधर्मसद्भाव तथा धार्मिक सहिष्णुता का मंत्र विविध धर्मावलंबी भारतीय जनता के लिए सर्वदा अनुकरणीय है।
दलितों के मसीहा
क्रांतिकारी विचारों के धनी आचार्यश्री तुलसी का हृदय करुणा से आप्लावित था। फलतः गांधी की भाँति उन्होंने भी हरिजन-उद्धार और अस्पृश्यता-निवारण के लिए अनकथ प्रयास किया। संघर्षों की आँच में तपने के बावजूद आचार्य तुलसी ने दलितोत्थान कार्यक्रम को जारी रखा और युगधारा के प्रवाह को मोड़ दिया।
नारी जाति के उन्नायक
अशिक्षा, अंधविश्वास और सामाजिक कुरूढ़ियों से जर्जर आधी दुनिया में प्राण फूँकने के लिए आचार्य तुलसी ने ‘नया मोड़’ नाम से एक अभियान चलाया। इसके अंतर्गत पर्दा प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा, विधवाओं का नारकीय जीवन आदि का खुलकर प्रतिकार किया, जिससे ये सब कुरूढ़ियाँ मृतप्राय हो गईं। स्त्री-शिक्षा को प्रोत्साहन देकर उन्होंने नारी जाति में नए-नए उन्मेष पैदा किए।
साध्वी समाज की प्रबुद्धता और शैक्षिक प्रगति भी आचार्य तुलसी के सघन पुरुषार्थ की ही फलश्रुति है।
साहित्य एवं साहित्यकारों के सर्जक
आचार्यश्री बहुभाषी साहित्यकार थे। हिंदी, राजस्थानी और संस्कृत भाषा में उन्होंने शताधिक ग्रंथ लिखे। उनके द्वारा लिखित कालूयशोविलास राजस्थानी भाषा का उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य है। उसे पढ़ने वाले विद्वानों के अभिमत से वे महाकवि कालिदास से कम नहीं थे। आचार्यश्री की सृजन-चेतना का वैशिष्ट्य अपूर्व था। वे साहित्य के ही नहीं, साहित्यकारों के भी सर्जक थे। उन्होंने अपने धर्मसंघ में साहित्यकारों की एक लंबी कतार खड़ी कर दी, जिसमें आचार्य महाप्रज्ञ जैसे शिष्य भी शामिल थे।
जैन वाङ्मय के वाचनाप्रमुख
ढाई हजार वर्ष पूर्व महावीर ने त्रिपदी के माध्यम से जो सत्य दिया, गणधरों ने जिसका विस्तार किया, आचार्य तुलसी ने उस जैन वाङ्मय के संपादन का बीड़ा उठाया। सर्वप्रथम उज्जैन (1955) में उन्होंने इस अनुष्ठान की सिद्धश्री लिखी। उनके वाचनाप्रमुखत्व में आगमों पर वैज्ञानिक और असांप्रदायिक दृष्टि से विशद कार्य हुआ। आगम कार्य के जिस महान यज्ञ में आचार्यश्री ने पहली आहुति दी, वह आज भी आचार्यश्री महाश्रमण के सान्निध्य में अनवरत गति से चल रहा है। उन्होंने अपने जीवन में प्राथमिक रूप से करणीय कार्यों में आगम-संपादन को प्रथम पंक्ति में रखा और विशेष अवसरों के अतिरिक्त नियमित रूप से इस कार्य में समय का नियोजन किया।
(क्रमशः)