उपासना
(भाग - एक)
आचार्य रायचंदजी
तेरापंथ धर्मसंघ के तृतीय आचार्य रायचंदजी ‘ऋषिराय’ के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका जन्म वि0सं0 1847 को राजस्थान के उदयपुर संभाग में बड़ी रावलिया ग्राम में हुआ। उनके पिता का नाम शाह चतरोजी तथा माता का नाम कुशालांजी था। ग्यारह वर्ष की उम्र में सं0 1847 चैत्र शुक्ला पूर्णिमा को उन्होंने अपनी माता के साथ आचार्य भिक्षु के पास दीक्षा ग्रहण की।
थोड़े ही समय में मुनि रायचंदजी ने आगमों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। अनेक सूत्र उन्हें कंठस्थ थे। धर्मचर्चा करने में भी वे बड़े निपुण थे। उनकी आवाज तेज थी एवं स्वर में माधुर्य था। कहते हैं कि जब वे व्याख्यान देते तो आस-पास के गाँवों तक उनकी आवाज सुनाई देती।
मुनि रायचंद जी आचार्य भिक्षु के अत्यंत विश्वासपात्र थे। आचार्य भिक्षु का सान्निध्य उन्हें कुल तीन वर्ष तक ही प्राप्त हुआ। द्वितीय आचार्य भारमलजी के भी वे उतने ही विश्वासपात्र बने रहे। अल्प समय में ही वे एक होनहार मुनि के रूप में प्रतिभासित होने लगे। संघ की आंतरिक व्यवस्था में उनका परामर्श लिया जाता।
वि0सं0 1878 वैशाख कृष्णा नवमी को केलवा (मेवाड़) में आचार्य भारमलजी ने उन्हें युवाचार्य पद प्रदान किया। सं0 1878 माघ कृष्णा नवमी को राजनगर में वे आचार्य पद पर आसीन हुए। उनका लंबा कद और ओजस्वी व्यक्तित्व दूसरों को शीघ्र ही प्रभावित करने वाला था। उनके युग में तपस्या की भी बहुत वृद्धि हुई।
आचार्य रायचंदजी देशाटन में अभिरुचि रखते थे। उन्होंने अपने जीवन में अनेक नए प्रदेशों की यात्राएँ कीं। उन यात्राओं से तेरापंथ के प्रसार में बहुत सहयोग मिला। गुजरात, सौराष्ट्र एवं कच्छ में सर्वप्रथम ऋषिराय ने ही पदार्पण किया। इससे पहले तेरापंथ का कोई साधु वहाँ नहीं गया था। आचार्य के रूप में मालव प्रदेश में जाने वाले सर्वप्रथम ऋषिराय ही थे। थली प्रदेश में तेरापंथ की सरिता को प्रवाहित करने का श्रेय सर्वप्रथम ऋषिराय को ही है। ऋषिराय के युग में तपस्या की भी बहुत वृद्धि हुई।
ऋषिराय बड़े निर्भीक वृत्ति के थे। वे अपनी बात इतने प्रभावशाली ढंग से कहते कि सामने वाला व्यक्ति नत हुए बिना नहीं रहता। एक बार वे मेवाड़ में विहार कर रहे थे। कुछ संत उनसे कुछ दूर चल रहे थे। उन दिनों वहाँ डाकुओं का काफी बोलबाला था। एक बार विहार में उनसे आगे चलने वाले साधुओं को कुछ घुड़सवार डाकू मिले। उन्होंने संतों को सामान नीचे रखने को कहा। संतों ने कहाµ‘हमारे पास कोई धन नहीं है। हम तो अपने पास मात्र आवश्यक वस्त्र, पात्र आदि रखते हैं।’ इतने में एक घुड़सवार ने साधु के कंधे पर पड़े कंबल को लेने का प्रयत्न किया। उस साधु ने भी तत्काल कंबल को नीचे बिछाया और उस पर बैठ गया। डाकू घोड़े से नीचे उतरा और कंबल को साधु के नीचे से खींचकर निकालने लगा। ऋषिराय ने दूर से यह दृश्य देखा। तत्काल वहीं से ‘हाकल’ करते हुए उन्होंने कहाµ‘सारे गोले ही गोले इकट्ठे हुए हो या तुममें कोई राजपूत भी हैं?’ ऋषिराय की तेज आवाज काफी दूर तक फैल गई। डाकू टोली का सरदार ‘ठाकुर’ थोड़ा पीछे चल रहा था। तत्काल आगे आया। तब तक ऋषिराय भी संतों के पास पहुँच चुके थे। ठाकुर ने आते ही पूछाµ‘क्यों महाराज! आपको राजपूत की आवश्यकता क्यों पड़ गई?’ ऋषिराय ने कहाµ‘हमें कोई आवश्यकता नहीं पड़ी है। मैं तो जानना चाहता था कि इनमें कोई राजपूत है या नहीं? क्योंकि मेरा विश्वास है कि राजपूत अभी तक इतना पतित नहीं हुआ है जो संतों को भी लूटने का साहस करे।’ ठाकुर ने ऋषिराय के चरणों में नमस्कार करते हुए अपनी गलती स्वीकार की। इतना ही नहीं, उसने अपने दो साथियों को संतों के साथ भेजा ताकि पीछे आते साथियों में से फिर कोई ऐसी गलती न कर बैठे।
ऋषिराय का शासनकाल तीस वर्ष का रहा। वि0सं0 1908 का अंतिम चातुर्मास उनका उदयपुर में हुआ। उदयपुर में आस-पास के क्षेत्रों में विचरते हुए वे ‘छोटी रावलिया’ पधारे। वहाँ माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन सायं शौच के निमित्त बाहर जाते समय अचानक उन्हें श्वास का प्रकोप हुआ और उसी बीमारी में प्रतिक्रमण के पश्चात् वे सदा के लिए इस संसार से विदा हो गए।
ऋषिराय के शासनकाल में कुल दो सौ पैंतालीस दीक्षाएँ हुईं। उनमें सतहत्तर साधु और एक सौ अड़सठ साध्वियाँ थीं। (क्रमशः)