आत्मा के आसपास

स्वाध्याय

आत्मा के आसपास

 

आचार्य तुलसी

प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा

                                                          जैन विश्‍व भारती

विधिवत उनकी साधना, शिक्षण और प्रयोग।
विश्‍व भारती में सतत चलता सहज सुयोग॥

प्रश्‍न : प्रेक्षाध्यान पद्धति के प्रशिक्षण और प्रयोग की व्यवस्था कहाँ है?
उत्तर : इसके लिए मुख्यत: तीन प्रकार की व्यवस्थाएँ हैं। हम कहीं भी रहते हैं, हमारे साथ ऐसे साधु-साध्वियाँ हैं, जो स्वयं प्रेक्षा का प्रयोग करते हैं और विषय के जिज्ञासु लोगों को प्रशिक्षण देने का काम भी करते हैं। समय-समय पर आयोजित होने वाले शिविरों में भी प्रेक्षाध्यान का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सकता है। दूसरी व्यवस्था हैदिल्ली में स्थित ‘अध्यात्म साधना केंद्र’ (महरौली) में। वहाँ स्थायी और अस्थायी रूप से साधक इस विषय का प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। तीसरी व्यवस्था हैजैन विश्‍वभारती में। यह प्रेक्षाध्यान की मुख्य प्रयोग भूमि है। इसके संबंध में मैं थोड़ा विस्तार से प्रकाश डाल रहा हूँ
जैन विश्‍व भारती प्राच्य विद्याओं का एक संस्थान है। वहाँ शिक्षा और शोध के क्षेत्र में एक विशिष्ट प्रयोग चल रहा है। शिक्षा के संस्थान बहुत हैं। विश्‍व-विद्यालयों में शिक्षा के साथ-साथ शोध-संस्थान भी चल रहे हैं। शिक्षा और शोध संबंधी नीतियों में परिमार्जन और परिवर्तन होता रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में विकास भी बहुत हुआ है, किंतु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षा और शोध के जितने संस्थान हैं, वे वर्तमान की समस्याओं को समाधान देने की द‍ृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं। इसके साथ एक तीसरी बात और जुड़नी चाहिए। वह है साधना, ध्यान का अभ्यास। साधना के बिना शिक्षा अधूरी है। अध्ययन कितना भी कर लिया जाए, उससे चित्त की चंचलता कम नहीं होती। जब तक विद्यार्थी का चित्त निर्मल नहीं होता, शांत नहीं होता, समस्या को सुलझाने की क्षमता प्राप्त नहीं हो सकती। प्रत्युत वह नई-नई समस्याओं को जन्म देता रहता है। इसलिए यह कल्पना की गई कि शिक्षा, शोध और साधना का समन्वित प्रयोग होना चाहिए। इस कल्पना में शिक्षा और शोध का स्थान दूसरा है, पहला स्थान हैसाधना का। इस कल्पना में साधना की प्रमुखता नहीं होती तो इसका विशेष मूल्य नहीं हो सकता था, क्योंकि साधना-शून्य शिक्षा और शोध तो चलते ही हैं।
शिक्षा, शोध और साधना की समन्वित कल्पना को आकार देने के लिए हमारे समाज के लोगों ने ‘जैन विश्‍व भारती’ नामक संस्थान की स्थापना की। यह संस्थान नागौर जिले के अंतर्गत लाडनूं नामक शहर में है। इसमें उन लोगों ने शिक्षा, शोध और साधना के साथ सेवा की प्रवृत्ति और जोड़ दी। इस प्रकार जैन विश्‍व भारती में प्रवृत्तियों का चतुष्कोण है। इन सबमें मुख्य हैंसाधना-ध्यान का प्रशिक्षण, ध्यान के प्रयोग और ध्यान का अभ्यास।
ध्यान शिक्षा का अनिवार्य अंग है। यदि हम शिक्षा से ध्यान को अलग कर दें तो वह शिक्षा केवल आँकड़ों की शिक्षा रह जाएगी। ध्यान-शून्य शिक्षा जीवन-स्पर्शी, जीवन-व्यवहार को बदलने वाली और आचरण को जीवन में सुस्थिर करने वाली शिक्षा नहीं हो सकती। इसलिए हमने जैन विश्‍व भारती के साधना केंद्र (तुलसी अध्यात्म नीडम्) द्वारा एक योजना पर चिंतन किया है। वह योजना हैजीवन-विज्ञान की। कोई भी विद्यार्थी जब तक अपने जीवन और उसकी गहराइयों के बारे में नहीं जानता, जब तक वह यांत्रिक जीवन जीता है, तब तक उसके जीवन में केवल बौद्धिकता और तार्किकता ही रहती है, पर अनुभव का योग नहीं होता। वर्तमान के शिक्षा-संस्थानों में बढ़ रही समस्या का मुख्य कारण हैजीवन-विज्ञान शून्य शिक्षा।
मैंने सुना है कि जापान के शिक्षा संस्थानों में शिक्षण के साथ ध्यान के प्रयोग भी चलते हैं। यही कारण है कि उनमें कर्तव्य-निष्ठा अधिक है, दायित्व-बोध और दायित्व-निर्वाह की भावना अधिक जागृत है। वहाँ के कर्मचारी, मजदूर आदि अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं। उनके हितों को कुचल देने पर वे विरोध-प्रदर्शन भी करते हैं, पर कभी काम बंद नहीं करते। वे कभी राष्ट्र की संपत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाते। उनकी हड़ताल या विरोध-प्रदर्शन की पद्धति हैहाथ पर काली पट्टी बाँध लेना। जिस कर्मचारी के हाथ पर काली पट्टी बँधी होती है, उसका असंतोष व्यक्‍त हो जाता है। पर वे तोड़-फोड़ जैसी पाशविक प्रवृत्तियों का सहारा नहीं लेते।
इसके विपरीत यहाँ विरोध का कोई ठोस आधार हो या नहीं, काम सबसे पहले बंद होता है। तोड़-फोड़ का जो सिलसिला चला है, उसका तो कोई अर्थ ही समझ में नहीं आता। और भी बहुत-सी अव्यावहारिक बातें होती रहती हैं। यह सब तभी छूट सकता है, जब व्यक्‍ति का चित्त नियंत्रित हो।
ध्यान चित्त की उच्छृंखलता पर एक अंकुश है। जो इसका प्रयोग कर लेता है, वह कभी असामाजिक व्यवहार नहीं कर सकता। इस द‍ृष्टि से जैन विश्‍व भारती में ध्यान को अनिवार्य तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। इसी दुर्लभ विशेषता के कारण जैन विश्‍वभारती सारे शिक्षा-संस्थानों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसका महत्त्व इसलिए नहीं है कि इसके पास बड़े-बड़े भवन हैं, भवन तो इससे भी बड़े कहीं भी हो सकते हैं। जैन विश्‍व भारती की महत्ता का कारण है, उसकी अपनी विशिष्ट परिकल्पना। इस कल्पना के अनुसार वहाँ से संचालित शिक्षा, शोध और सेवा की प्रवृत्तियों में भी प्रेक्षाध्यान की मुख्यता है। वहाँ अनवरत प्रेक्षा के प्रयोग चलते रहते हैं। हजारों-हजारों व्यक्‍ति उन प्रयोगों से लाभान्वित हो रहे हैं और अपनी समस्याओं का समाधान पा रहे हैं।