अणुव्रतों को धारण कर जीवन को बनाएँ सुफल: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

अणुव्रतों को धारण कर जीवन को बनाएँ सुफल: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 3 नवंबर, 2022
धर्मसंघ के नायक आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि जीव का जो आयुष्य बंध होता है, वह ज्ञात अवस्था में होता है या अज्ञात अवस्था में होता है। यह नियम है कि प्राणी अगले जन्म में जाता है, तो वर्तमान जन्म में अगले आयुष्य का बंध करके ही मरेगा। जैसे रेल या वायुयान से यात्रा करनी हो तो गृहस्थ को पहले टिकट बनानी पड़ती है। जीव अगले भव में कहाँ जाएगा उसका निर्णय वर्तमान भव में ही होता है। अगले जन्म का आयुष्य बंध ज्ञात अवस्था में नहीं होता। वह अज्ञात अवस्था में ही होता है। वर्तमान आयुष्य के तीसरे भाग, नौवें भाग या सत्ताइसवें भाग में होता है। जागरूकता यह रहे कि जीवन अच्छा रहे।
कर्म अच्छे-बुरे जो भी किए हैं, उनका फल भोगना होता है। जीवन का भरोसा है नहीं, क्या पता कब जीवन पूरा हो जाए। जीवन जब तक है, आदमी अपना अच्छा काम कर ले। धर्म-ध्यान करे। स्थिति अनुसार समय का नियोजन करे। पापों से बचने का प्रयास करे। जीवन में ईमानदारी, नैतिकता और नशामुक्ति रहे। धर्म के दो प्रकार काल प्रबद्ध और कालातीत हो जाते हैं। जीवन की शैली के साथ अणुव्रत भी जुड़ जाए। भाव क्रिया, प्रतिक्रिया विरति, मैत्री, मिताहार और मितभावना का प्रयोग जीवन में हो। इसमें समय लगाने की जरूरत नहीं। जीवन व्यवहार में पाँचों बातें जुड़ जाती हैं। जीवन की समाप्ति का भी पक्का पता चलना मुश्किल है। आयुष्य कभी भी पूरा हो सकता है।
मृत्यु का पता न होना भी अच्छी बात है। आदमी को मौत-बीमारी का डर न रहे। मन में शांति रहनी चाहिए। धर्म-अध्यात्म की साधना करते रहें। पूज्यप्रवर की सन्निधि में जैविभा द्वारा प्रकाशित एक ग्रंथ ‘प्रवचन सारोद्धार’ का लोकार्पण हुआ। पूज्यप्रवर के दिशा-निर्देशन में यह ग्रंथ समणी कुसुमप्रज्ञा जी द्वारा संपादित है। पूज्यप्रवर ने आशीर्वचन फरमाया। हमारे यहाँ पर आगमेत्तर साहित्य पर भी काम होता है, हुआ है। गुरुदेव तुलसी की तो छत्रछाया और कुछ-कुछ परिश्रम भी इसमें रहा है।
परमपूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के आगम कार्य के रीढ़ के रूप में रहे हैं। चारित्रात्माओं का भी सहयोग रहा है। समणी कुसुमप्रज्ञा जी पुराने ग्रंथों के संपादन से जुड़ी हैं। अनेक ग्रंथ इनके द्वारा संपादित होकर सामने आए हैं। आगे भी ये प्राच्य गं्रथ का संपादन करती रहे। इससे स्वाध्याय भी हो जाता है। इनमें शुक्ल लेश्या के भावों का विकास होता रहे। समणी कुसुमप्रज्ञा जी ने इस ग्रंथ के विषय में जानकारी दी। व्यवस्था समिति के अध्यक्ष माणकचंद नाहटा ने भूमिदाताओं व व्यवस्था सहयोगियों के नाम की घोषणा की। व्यवस्था समिति द्वारा उनका सम्मान किया गया।