संयम की अमृतमय बूँदों से जीवनघट भरने का करें प्रयास: आचार्यश्री महाश्रमण

गुरुवाणी/ केन्द्र

संयम की अमृतमय बूँदों से जीवनघट भरने का करें प्रयास: आचार्यश्री महाश्रमण

ताल छापर, 30 अक्टूबर, 2022
अभयदाता परमपूज्य आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल देशना प्रदान करते हुए फरमाया कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि जीव संयत है, असंयत है, संयतासंयत है? हम संसारी जीवों को इन तीन भागों में बाँट सकते हैं, भले वो फिर मनुष्य हों, तिर्यंच हों, देव हो या नरक हो। जीव कई संयत होते हैं यानी जो साधु हैं, हिंसा आदि पापों का परित्याग कर दिया है। छठे से चौदहवें गुणस्थान के सब जीव साधु होते हैं। जिन जीवों को कोई त्याग-प्रत्याख्यान नहीं हैं, वे सारे के सारे असंयत होते हैं। सारे नारकीय जीव, देव तो असंयत होते हैं। मनुष्यों और तिर्यंचों में भी बहुत से असंयत होते हैं, कुछ संयतासंयत हो सकते हैं। जिनमें थोड़े अंश में संयम भी है, असंयम भी है, देश विरत है वे संयतासंयत होते हैं। श्रावक होते हैं।
साधु होना बहुत अच्छी बात है। संयत मनुष्य ही होते हैं। साधु साधुपन में रम जाए। बालवय में भी साधु बन जाते हैं। पूज्य कालूगणी बालवय में साधु बने थे जो आगे हमारे सरताज बने थे। उनके द्वारा बालवय में दीक्षित मुनि तुलसी और मुनि नथमल जो दोनों हमारे अनुशास्ता बने थे। संन्यास का अपना महत्त्व है जीवन में पैसा-पद कितना ही मिल जाए, साधुत्व आ जाए तो बड़ी चीज मिल गई। साधु का पद जीवन भर चल सकता है। संयम एक अमूल्य रत्न है। गृहस्थ में भी संयम हो। सादगी और त्याग हो। सुबह-सुबह की सामायिक तो बढ़िया अमृत है। संयम की बूँदों से जीवन का घट भरे ऐसा प्रयास गृहस्थ का रहना चाहिए।
जो असंयत है, वे भी अच्छा-सदाचार का जीवन जीए। उनके जीवन में अणुव्रत के नियम आ जाएँ। उससे उसकी आत्मा भी कल्याण की ओर आगे बढ़ सकती है। आदमी किसी भी क्षेत्र में रहे, जीवन में ईमानदारी-नैतिकता रहे। अतीत में कितने संत भारत में हुए हैं, वर्तमान में भी हैं। कितने-कितने ग्रंथ भी हैं। भारत के पास संत, ग्रंथ और पंथ संपदा है। पंथों से पथदर्शन भी मिलता रहे। हम संयम की चेतना को पुष्ट करने का प्रयास करते रहें, यह काम्य है।
शासनश्री साध्वी चांदकुमारी जी को आज संयम ग्रहण किए हुए पचहत्तर वर्ष हो रहे हैं। पूज्यप्रवर ने फरमाया कि प्रार्थना की गई कि प्राणियों के प्रति मेरा मैत्री भाव रहे। गुणिजनों के प्रति प्रमोद भाव रहे। संकलिष्ट प्राणियों के प्रति कारुण्य का भाव रहे। विपरीत वृत्ति में मध्यस्थ भाव। सदा मेरी आत्मा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ का प्रयोग करती रहे। जिस व्यक्ति के जीवन में ये चार अनुप्रेक्षाएँ अंतर्गत हो जाती हैं, चित्त भावित हो जाता है, तो उस व्यक्ति की चेतना निर्मल बनती है। उसका व्यवहार भी कुशल बन जाता है।
मैंने अपने जीवन में पाँच आचार्यों की साध्वियों को देखा है। डालगणी के युग की साध्वी लाडांजी को मैंने बचपन में देखा था। साध्वी खुमांजी को भी देखा है, वो भी लगभग डालगणी के युग की साध्वी थी। कालूगणी व बाद की साध्वियों को तो देखा ही है। चार आचार्यों के युग के संतों को देखा है। पुरानी साध्वियों में मुझे संस्कार लगे, उनमें से एक साध्वी चांदकुमारी जी है, जिनका पचहत्तरवाँ संयम पर्याय वर्ष चल रहा है। यह भी एक बड़ी उपलब्धि है। मैंने जब दीक्षा ली थी तब आप सरदारशहर में ही थी। इनमें अनेक विशेषताएँ हैं, यह जीवन का एक खजाना है। गुणात्मकता हमारी निधि है, वो बढ़ता रहे। गोलछा परिवार से अनेक चारित्रात्माएँ हैं। साध्वीश्री में संघीय और आचार के संस्कारों का होना अच्छा है। पूज्यप्रवर ने स्वलिखित इनके प्रति संदेश को पढ़कर सुनाया एवं साध्वीश्री को प्रदान करवाया। जप, ध्यान, स्वाध्याय में प्रगति होती रहे, ऐसी मंगलकामना व्यक्त की।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने, साध्वीवर्या सम्बुद्धयशा जी ने एवं मुख्य मुनि महावीर कुमार जी ने भी उनके गुणों के प्रति प्रमोद भावना व्यक्त करते हुए मंगलकामना अभिव्यक्त की। साध्वी चांदकुमारी जी ने अपनी मनोभावना व्यक्त की। साध्वीवृंद ने गीत से साध्वीश्री का गुणानुवाद किया। बैंगलोर के राज्यसभा सांसद लहरसिंह सिरोहिया ने अपनी भावना की अभिव्यक्ति पूज्यप्रवर के चरणों में दी। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।