संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

 

आचार्य महाप्रज्ञ

क्रिया-अक्रियावाद


(10) अणुव्रतानि गृह्णन्ति, गुणशिक्षाव्रतानि च।
विशिष्टां साधनां कर्तुं, प्रतिमा: श्रावकोचिता:॥


शिक्षाव्रत
जो व्रत अभ्यास-साध्य होते हैं और आंतरिक पवित्रता बढ़ाते हैं, उन्हें शिक्षाव्रत कहा जाता है। वे चार हैं
(1) सामायिकजिससे पापमय प्रवृत्तियों से विरत होने का विकास होता है। उसे सामायिक व्रत कहते हैं।
(2) देशावकाशिकएक निश्‍चित अवधि के लिए विधिपूर्वक हिंसा का परित्याग करना।
(3) पौषधउपवासपूर्वक असत् प्रवृत्ति की विरति करना।
(4) अतिथिसंविभागअपना विसर्जन कर पात्र (मुनि) को दान देना।
(गुणव्रत और शिक्षाव्रत के विवरण के लिए देखें14/31-37)।
इस प्रकार पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतोंबारह व्रतों को धारण करने वाला बारहव्रती श्रावक होता है।
जब वह व्रती की कक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है और संयम का उत्कर्ष तथा मन का निग्रह करने के लिए तत्पर होता है तब वह उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। (प्रतिमाओं के विवरण के लिए देखें 14/40-42)।

(11) एकेभ्य: सन्ति साधुभ्य: गृहस्था: संयमोत्तरा:।
गृहस्थेभ्यश्‍च सर्वेभ्य:, साधव: संयमोत्तरा:॥

कुछ साधुओं से गृहस्थों का संयम श्रेष्ठ होता है, परंतु सभी गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता है।
संयम के अभाव में साधना नहीं निखरती। व्यक्‍ति का विकास संयम में होता है। संयम का अर्थ हैस्व में प्रवृत्त होना, बहिर्व्यापार से मुक्‍त होना। वहाँ इंद्रिय, शरीर और मन का संपर्क छूट जाता है। साधना वहीं साकार होती है। साधना के वेश में यदि संयम का उद्दीपन नहीं है तो उस प्रकार के मुनि से एक संयमयुक्‍त गृहस्थ भी श्रेष्ठ होता है। किंतु जिस साधना में संयम की प्रमुखता है वहाँ गृहस्थ का स्थान साधनारत साधकों से ऊँचा नहीं होता।

(12) भिक्षादा वा गृहस्था वा, ये सन्ति परिनिर्वृता:।
तप: संयममभ्यस्य, दिवं गच्छन्ति सुव्रता:॥

जो भिक्षु या गृहस्थ शांत और सुव्रत होते हैं, वे तप और संयम का अभ्यास कर स्वर्ग में जाते हैं।

(13) गृही सामायिकांगनि, श्रद्धी कायेन संस्पृशेत्।
पौषधं पक्षयोर्मध्येऽप्येकरात्रं न हापयेत्॥

श्रद्धावान् गृहस्थ काया से सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात भी न छोड़ेंकभी न छोड़ें।