संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(43) यो जीवान् नैव जानाति, नाऽजीवानपि तत्त्वतः।
जीवाऽजीवानजानन् सः, कथं ज्ञास्यति संयमम्।।
जो तत्त्वतः जीव को नहीं जानता, अजीव को भी नहीं जानता, वह जीव-अजीव-दोनों को नहीं जानने वाला संयम को कैसे जानेगा?
(44) यो जीवानपि विजानाति, वेत्त्यजीवानपि ध्रुवम्।
जीवाऽजीवान् विजानन् सः, सम्यग् ज्ञास्यति संयमम्।।
जो जीव को जानता है, अजीव को भी जानता है, वह जीव-अजीव-दोनों को जानने वाला संयम को सम्यग् प्रकार से जान लेगा।
(45) यदा जीवानजीवांश्च, द्वावप्येतौ विबुध्यते।
तदा गतिं बहुविधां, जानाति सर्वदेहिनाम्।।
जो जीव और अजीव-दोनों को जानता है, वह जीवों की नाना प्रकार की गतियों को जानता है।
(46) यदा गतिं बहुविधां, जानाति सर्वदेहिनाम्।
पुण्यपापे बंधमोक्षौ, तदा जानाति तत्त्वतः।।
जब मनुष्य जीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है तब वह तत्त्वतः पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को भी जान लेता है।
(47) पुण्यपापे बंधमोक्षौ, यदा जानाति तत्त्वतः।
तदा विरज्यते भोगाद्, दिव्यात् मानुषकात् यथा।।
जब मनुष्य पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को जान लेता है, तब मनुष्यों और देवों के जो भी भोग हैं, उनसे विरक्त हो जाता है।
(48) यदा विरज्यते भोगात्, दिव्यात् मानुषकात् तथा।
तदा त्यजति संयोगं, बाह्यमाभ्यंतरं द्विधा।।
जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह बाह्य और आभ्यंतर-दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है।
(49) यदा त्यजति संयोगं, बाह्यमाभ्यंतरं द्विधा।
तदा मुनिपदं प्राप्य, धर्मं स्पृशति संवरम्।।
जब मनुष्य बाह्य और आभ्यंतर-दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है, तब वह मुनिपद को प्राप्त कर संवर धर्म का स्पर्श करता है।
(50) यदा मुनिपदं प्राप्य, धर्मं स्पृशति संवरम्।
तदा धूतं कर्मरजः, भवत्यबोधिना कृतम्।।
जब मनुष्य मुनिपद को प्राप्त कर संवर धर्म का स्पर्श करता है तब वह अबोधि द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकंपित कर देता है।
(क्रमशः)