आत्मा के आसपास
आत्मा के आसपास
प्रेक्षा: अनुप्रेक्षा
आचार्य तुलसी: जीवन परिचय
मौलिक अवदान
आचार्य तुलसी स्वप्नदर्शी आचार्य थे। खुली आँखों से सपने देखना, उन्हें सफल करने के लिए संकल्पित होना और पुरुषार्थ की प्रज्वलित लौ से मंजिल तक पहुँचना उनकी नियति थी। उन्होंने अपनी तेजस्वी और यशस्वी अनुशासना में मौलिक अवदानों की कतार खड़ी कर दी-
- प्रेक्षाध्यान: साधना की वैज्ञानिक पद्धति
- जीवन विज्ञान: सर्वांगीण विकास का उपक्रम
- समण श्रेणी: संन्यास की नई परंपरा
- जैन विश्व भारती: प्राच्यविद्याओं के अध्ययन एवं अनुसंधान का केंद्र
- जैन विश्व भारती यूनिवर्सिटी: जैन समाज का प्रथम विश्वविद्यालय
- पारमार्थिक शिक्षण संस्था: मुमुक्षु श्रेणी का प्रशिक्षण केंद्र
इस प्रकार के अनेक कालजयी अवदानों के प्रति प्रणत भारत सरकार तथा कुछ विशिष्ट संस्थानों ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, भारत ज्योति, वाक्पति आदि सम्मानों को समर्पित कर स्वयं को कृतकृत्य माना।
जिस समय उनका वर्चस्व शिखर पर था, उस समय (1994) उन्होंने छह दशकों के नवोन्मेषी नेतृत्व को त्यागकर, विसर्जन का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत कर आचार्य महाप्रज्ञ को धर्मसंघ का नेतृत्व सौंप दिया। सत्ता से ऊपर उठने के बाद भी उनकी जीवन-यात्रा, ज्योति-यात्रा बनी रही। वे आजीवन जन-जन को अध्यात्म का आलोक बाँटते रहे और मानवता की सेवा करते रहे।
23 जून, 1997 को सहसा वह अध्यात्म का महासूर्य अपनी आलोक-रश्मियों को समेटकर युग-पटल से तिरोहित हो गया।
आचार्य तुलसी गति, प्रकाश और ऊर्जा के पर्याय थे। शुभ्र श्वेत वस्त्रों में झाँकता हुआ वह अद्भुत व्यक्तित्व, जिसकी आँखें बोलती थीं, वाणी देखती थी और मन सुनता था, वह आज भी जन-जन के मन-मंदिर में समाया हुआ है।
तुलसी जन्मशताब्दी का ऐतिहासिक प्रसंग उनकी दिव्य चेतना, क्रांतिकारी विचारों और अलौकिक सर्जनाओं से संपर्क स्थापित करने का एक दुर्लभ अवसर है।
हमने पढ़ा...
आत्मा के आसपास होने का मतलब है-आत्म-दर्शन की दिशा में प्रस्थान करना। इस यात्रा में अर्हत वाणी और अध्यात्म का पाथेय-दोनों हमारे पथदर्शक बनकर हर कदम रास्ता दिखाते हैं। जो साधक निश्चय और व्यवहार के साथ समत्वशील बनकर जीना सीख लेता है, उसका मन संसार में रहता हुआ भी संन्यस्त बन जाता है। वह इंद्रियों और मन को जीत लेता है। वह बाहर और भीतर से कर्मबंध के प्रति जागरूक रहता है। फिर उसे ध्यान के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता, ध्यान स्वयं ही लग जाता है।
प्रेक्षाध्यान अनुभव की वह भूमिका है, जहाँ संप्रदाय या परंपरा का भेद नहीं होता। इसलिए ध्यान को भी विभक्त नहीं किया जा सकता। फिर भी उस भूमिका तक पहुँचने के लिए जो-जो साधन अपनाए जाते हैं, वे विभक्त हो जाते हैं। इस दृष्टि से प्रेक्षाध्यान पद्धति का सर्वोपरि लक्ष्य है-वीतरागता। राग और द्वेष को उपशांत करना या आंशिक रूप से क्षीण करना प्रेक्षा का आदि-बिंदु है। इसका अंतिम बिंदु है-राग और द्वेष का सर्वथा क्षय। ध्यान के आदि-बिंदु और अंतिम बिंदु के मध्य की सारी यात्रा राग-द्वेष के उपशमन या क्षय की यात्रा है। इस यात्रा में चित्त पर राग-द्वेष का प्रभाव जितना अधिक होगा, कषाय प्रबल रहेगा। कषाय की प्रबलता में चित्त की चंचलता समाप्त नहीं हो सकती। चंचल चित्त न तो ध्यान के लिए उपयुक्त होता है और न वह वीतरागता का दिशा में आगे बढ़ सकता है। इस दृष्टि से जैन परंपरा में ध्यान-पद्धति का उद्देश्य यही होना चाहिए। इस व्यापक उद्देश्य को लेकर फलित होने वाली ध्यान-पद्धति अपने आप में पूर्ण पद्धति है और वह हर व्यक्ति के लिए उपयोगी है।
(समाप्त)