उपासना
(भाग - एक)
आचार्य महाश्रमण
आचार्य जीतमलजी
तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य जीतमलजी जैन परंपरा में एक महान् प्रतिभाशाली आचार्य हुए हैं। उन्होंने अपनी कृतियों में अपना उपनाम ‘जय’ रखा। इसलिए वे जयाचार्य के नाम से ही अधिक विख्यात हैं। उनका जन्म मारवाड़ के रोयट ग्राम में वि0सं0 1860 आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को हुआ। उनके पिता का नाम आईदानजी तथा माता का नाम कल्लूजी था। वे ओसवाल जाति के गोलछा गोत्र के थे। जयाचार्य जब सात वर्ष के थे, तभी उन्होंने दीक्षित होने का निश्चय कर लिया।
जयाचार्य की दीक्षा आचार्य भारमलजी के आदेश से युवाचार्य रायचंदजी द्वारा जयपुर में संपन्न हुई। दीक्षा दिन वि0सं0 1869 माघ कृष्णा सप्तमी है। इस समय जयाचार्य दसवें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे।
जयाचार्य के ज्येष्ठ भ्राता स्वरूपचंदजी स्वामी की दीक्षा इसी वर्ष पौष शुक्ला नवमी को जयपुर में हुई थीं। जयाचार्य की दीक्षा के लगभग एक महीने बाद फाल्गुन कृष्णा एकादशी को उनकी माता कल्लूजी तथा द्वितीय ज्येष्ठ भ्राता भीमराजजी ने भी दीक्षा अंगीकार की। उनकी संसारपक्षीय बुआ अजबूजी पहले से ही दीक्षित थीं। इस प्रकार जयाचार्य का पूरा परिवार ही तेरापंथ धर्मसंघ को समर्पित हो गया।
दीक्षित होने के बाद शिक्षा के लिए जयाचार्य मुनि हेमराजजी को सौंपे गए। भारमलजी स्वामी जैसे समर्थ आचार्य, ऋषिराय जैसे दीक्षा गुरु और आगमविज्ञ हेमराजजी स्वामी जैसे विद्या गुरु पाकर मानो वे त्रिवेणी में स्नात हो गए।
जयाचार्य प्रारंभ से ही स्थिरयोगी एवं महान् मेधावी थे। चौदह वर्ष की बालवय में उनकी स्थितप्रज्ञता को देखकर एक अन्य मतावलंबी विरोधी भाई के मुख से निकल पड़ाµ‘जिस संघ में ऐसे निष्ठावान स्थिरयोगी मुनि विद्यमान हैं, उस संघ की नींव को कम से कम सौ वर्ष तक तो कोई हिला नहीं सकता।’
जयाचार्य की विकासशील क्षमताओं को देखकर ऋषिराय ने वि0सं0 1894 में उन्हें युवाचार्य पद पर नियुक्त किया। ऋषिराय के स्वर्गवास के पश्चात् वि0सं0 1908 माघ शुक्ला पूर्णिमा को उन्होंने तेरापंथ धर्मसंघ का दायित्व संभाला।
जयाचार्य के शासनकाल में तेरापंथ धर्मसंघ एक शताब्दी को पार कर दूसरी शताब्दी में चरणन्यास कर रहा था। वह युग विचारों के संक्रमण का युग था। तेरापंथ की आंतरिक व्यवस्थाएँ परिवर्तन माँग रही थीं। जयाचार्य ने धर्मसंघ में अनेक व्यवस्थाओं को जन्म दिया। जयाचपार्य ने आज से एक शताब्दी पूर्व संघ में संविभाग की व्यवस्था स्थापित कर समाजवाद को मूर्त रूप दे दिया था। जयाचार्य ने न केवल संघीय पुस्तकों, धर्मोपकरणों एवं श्रम का ही संविभाग किया अपितु साधु-साध्वियों के वर्गों का भी समीकरण किया। उस समय तक साधु-साध्वियों के वर्गों में सहयोगियों की संख्या समान नहीं थी। जयाचार्य ने मनोवैज्ञानिक ढंग से सबके मानस को तैयार कर व्यवस्था को सुचारु रूप प्रदान किया। इस व्यवस्थागत परिवर्तन को आज की भाषा में जयाचार्य की क्रांति कहा जा सकता है। संघ को समृद्ध एवं सुसंगठित रखने के लिए उन्होंने नई मर्यादाओं का निर्माण भी किया।
श्रीमज्जयाचार्य कुशल अनुशासक, संविधान प्रणेता व मनोवैज्ञानिक अनुशास्ता होने के साथ-साथ महान् साहित्यसेवी थे। कवित्व उनमें नैसर्गिक था। ग्यारह वर्ष की उम्र में उन्होंने ‘संतगुणमाला’ कृति की रचना की। उन्नीस वर्ष की उम्र में पन्नवणा जैसे गंभीर ग्रंथ का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद किया। इसके बाद तो जयाचार्य ने जैसे साहित्य की अजस्र धारा ही प्रवाहित कर दी। जैन वाङ्मय के पंचम अंग भगवती पर उनके द्वारा लिखा गया राजस्थानी पद्यानुवाद ‘भगवती की जोड़’ राजस्थानी साहित्य का सबसे बड़ा ग्रंथ माना जाता है। उन्होंने न केवल आगमग्रंथों पर पद्यबद्ध टीकाएँ लिखीं अपितु स्थान-स्थान पर अपनी स्वतंत्र अनुभूति के आधार पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ भी लिखीं हैं। जयाचार्य ने आख्यान, संस्मरण, स्तुति, दर्शन, न्याय, छंद, व्याकरण, ध्यानयोग आदि विविध विषयों में अपनी लेखनी चलाई। उनका समग्र साहित्य करीब तीन लाख पद्य परिमाण वाला है। (क्रमशः)