साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(109)

याद तुम्हारी आती।
सूर्योदय के साथ नाथ! जब गुरु-वंदन को जाती।।

रूप तुम्हारा इन नयनों में सदा तैरता रहता
गूँज शब्द की कानों में निर्झर गीतों का बहता
नाम जीभ पर एक तुम्हारा तुलसी-तुलसी प्यारा
साँस-साँस में रहे देवते! केवल वास तुम्हारा
सोते-उठते खाते-पीते तुमको भूल न पाती।।

दिल के दरिये में जिस पल भावों का ज्वार उमड़ता
कौंध विचारों में उठती सावन घनघोर घुमड़ता
परिव्याप्त हो जाती तन पर एक अलक्षित जड़ता
मन के दर्पण पर जब-तब प्रतिबिंब तुम्हारा पड़ता
स्मृतियाँ जब अतीत की कोई नूतन रील दिखाती।।

आस्था के दीवट पर संकल्पों की जोत जलाऊँ
शब्द राग लय बिना तुम्हारे गीत अनवरत गाऊँ
बरसी अपरिमेय नयनों से जो करुणा की धारा
मिला सहज संपोषण उससे निर्मित जीवन सारा
नाम पता यदि भेज सको तो लिखती जाऊँ पाती।।

(110)

की गुरुवर ने नई सोच से नई क्रांति की अगुआई।
सदी बीसवीं में प्रतिबिंबित श्री तुलसी की पुण्याई।
यशोगीत गा रही उसी के अब पछुआई पुरवाई।।

अधरों पर अभिधान एक छवि बसी एक ही आँखों में
जपते-जपते नाम स्वयं ही शक्ति उभरती पाँखों में
इधर-उधर जिस ओर निहारें दिखलाई देते तुलसी
विज्ञजनों की वार्ताओं के केंद्रबिंदु हैं श्री तुलसी
विश्वभारती के कण-कण में है तुलसी की तरुणाई।।

कदमों में थी इतनी ताकत थके नहीं चलते-चलते
आँधी-तूफानों की आफत बुझे नहीं जलते-जलते
हुए सहज साकार सपन जो भावजगत में थे पलते
बोल मधुर पा आश्वासन के पीड़ा के हिमगिरि गलते
अमियपगी नजरें टिकते ही खिल जाती थी अमराई।।

पथ के अनगिन पाषाणों को प्रतिमा का आकार दिया
खोल विविध आयाम प्रगति के नया सृजन-संसार दिया
भरी रवानी जनमानस में बढ़ने का अवकाश दिया
जीवन के हर चौराहे पर मंजिल का अहसास दिया
वर्तमान के कैनवास पर यह अतीत की परछाईं।।

(क्रमशः)