संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

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बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(53) यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति केवली।
आयुषोऽन्ते निरुन्धानः, योगान् कृत्वा रजः क्षयम्।।
(54) अनन्तामचलां पुण्यां, सिद्धिं गच्छति नीरजाः।
तदा लोकमस्तकस्थः, सिद्धो भवति शाश्वतः।। (युग्मम्)
(पिछला शेष) जिन या केवली जब अपने स्थूल शरीर का त्याग करते हैं तब कुछ ही क्षणों में मन, वाणी व देह के योगों यानी प्रवृत्ति का निरोध कर मेरु पर्वत की भाँति अचल अवस्था को प्राप्त कर समस्त स्थूल-सूक्ष्म शरीरों से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सिद्धत्व का वरण कर लेते हैं। आवागमन से मुक्त हो जाते हैं।
मुक्तात्माµसिद्धत्व को प्राप्त आत्मा का अवस्थान लोक का अग्रभाग है। इससे आगे न गति है और न स्थिति है। आकाश के दो विभाग हैंµएक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश। अलोक में आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्य नहीं हैं। लोक में ही गति, स्थिति, जीव और पुद्गल है। गति और स्थिति द्रव्य के अभाव में जीव और पुद्गलों का अलोकाकाश में अवस्थिति नहीं होती। लोकाकाश और अलोकाकाश की मर्यादा इन्हीं के कारण से होती है। सिद्ध शुद्धात्मा है। स्थूल आदि शरीरों के छूटने पर आत्मा एक समय में लोक के अग्रभाग में अवस्थित हो जाता है। यह आत्मा के पूर्ण मुक्त होने की अवस्था है। साधना की सिद्धि का यही अंतिम मुकाम है।

(55) अभूवंश्च भविष्यन्ति, सुव्रता धर्मचारिणः।
एतान् गुणानुदाहुस्ते, साधकाय शिवंकरान्।।

जो सुव्रत और धार्मिक हुए हैं और होंगे, उन्होंने साधक के लिए कल्याण करने वाले इन्हीं गुणों का निरूपण किया है।

इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसानामा नवमोऽध्यायः।

संयतचर्या
मेघः प्राह
(1) कथं चरेत् कथं तिष्ठेत्, शयीतासीत वा कथम्।
कथं भु×जीत भाषेत, साधको ब्रूहि मे प्रभो!
मेघ बोलाµहे प्रभो! मुझे बताइए, साधक कैसे चले? कैसे ठहरे? कैसे सोए? कैसे बैठे? कैसे खाए? और कैसे बोले?
मेघकुमार ने यहाँ छह प्रश्न प्रस्तुत किए हैं। इन छहों प्रश्नों में साधक जीवन के सारे पहलु समा जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो इन प्रश्नों में सारा योग समा जाता है।
व्यक्ति जब साधक-जीवन में प्रवेश करता है तब उसका चलना, बैठना, खाना आदि विशेष लक्ष्य से संबंधित हो जाते हैं। अतः उसे उन सभी प्रवृत्तियों की कुशलता प्राप्त करने के लिए लंबे समय तक प्रशिक्षण लेना होता है। यहाँ से योग का प्रारंभ होता है।
गीता में भी अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैंµ
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव!
स्थितधीः किं प्रभाषेत, किमासीत व्रजेत् किम्।।
केशव! समाधि में स्थित स्थितप्रज्ञ की क्या परिभाषा है? वह कैसे बोले? कैसे बैठे? और कैसे चले? (क्रमशः)