उपासना
उपासना
(भाग - एक)
जयाचार्य के साहित्य का बहुत बड़ा भाग आचार्य भिक्षु के विचारों को गुम्फित करने में कृतार्थ हुआ है। आचार्य भिक्षु के प्रति वे सर्वात्मना समर्पित थे। उन्हें आचार्य भिक्षु का महान् भाष्यकार कहा जा सकता है। वे आचार्य भिक्षु के जीवन में इस तरह समा गए कि उनकी पहचान द्वितीय भिक्षु के रूप में होने लगी।
जयाचार्य महान् स्वाध्याय-प्रेमी थे। अनेक आगमों की हजारों गाथाएँ उन्हें कंठस्थ थीं। अंतिम कुछ वर्षों में वे अपना अधिकांश समय आगम-स्वाध्याय, ध्यान, आत्मचिंतन एवं साहित्य-सृजन में लगाते। आगमों का अवगाहन करते-करते उनकी मेधा इतनी प्रखर हो गई थी कि वे जिस किसी विषय को छूते, उसकी पुष्टि में आगम-प्रमाणों की लंबी शंृखला खड़ी कर देते।
जयाचार्य के विराट व्यक्तित्व में एक साथ कई क्षमताओं का विकास था। उन्होंने तीस वर्ष तक आचार्य के रूप में धर्मसंघ की सेवा की। उन्होंने अपने शासनकाल में आचार्य भिक्षु की परंपरा को सजाया, संवारा, संवर्धित किया एवं संगठन को सुदृढ़ आधार दिया।
उनके शासनकाल में तीन सौ उनतीस दीक्षाएँ हुईं जिनमें एक सौ पाँच साधु एवं दो सौ चौबीस साध्वियाँ थीं। वि0सं0 1938 भाद्रपद कृष्णा द्वादशी को जयपुर में उन्होंने पंडतमरण प्राप्त किया।
आचार्य मघवागणी
आचार्य मघवागणी तेरापंथ धर्मसंघ के पंचम आचार्य थे। उनका जन्म वि0सं0 1897 चैत्र शुक्ला एकादशी को बीदासर के बेगवानी परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम पूरणमलजी तथा माता का नाम बन्नाजी था। उनका जन्म-नाम मघराज था। उनके एक छोटी बहिन थी, जिसका नाम था गुलाब। दोनों ही भाई-बहन रूप संपन्न एवं बुद्धि संपन्न थे। उन दिनों युवाचार्य जीतमलजी का चातुर्मास बीदासर में हुआ। माता बन्नाजी एवं दोनों भाई-बहनों के हृदय में वैराग्य के बीज अंकुरित हुए। तीनों एक साथ संयम-जीवन ग्रहण करने को समुत्सुक थे पर कुमारी गुलाब साध्वी बनने के लिए निर्धारित न्युनतम अवस्था तक नहीं पहुँची थी। इसलिए तीनों के एक साथ त्याग मार्ग पर बढ़ने में बाधा थी। पुत्री के लिए माँ ने अपनी भावना का संवरण किया। बालक मघराज का मन मुनि बनने के लिए उतावला हो रहा था। उन्हें इस कार्य में थोड़ा भी विलम्ब असह्य था। माँ की अनुमति प्राप्त कर युवाचार्य जीतमलजी के सामने उन्होंने अपनी भावना प्रस्तुत की और तत्त्वज्ञान सीखना शुरू कर दिया। जयाचार्य को बालक मघवा के व्यक्तित्व में अप्रतिम योग्यता का आभास हुआ।
वि0सं0 1908 मृगसर कृष्णा द्वादशी के दिन बालक मघवा का भाग्योदय हुआ। लाडनूं में युवाचार्यश्री जीतमलजी के हाथ से उसका दीक्षा संस्कार संपन्न हुआ।
तेरापंथ के तृतीय आचार्य रायचंदजी उस समय मेवाड़ के रावलिया गाँव में विराज रहे थे। मुनि मघराज की दीक्षा के समाचार जब उनके पास पहुँचे, उस समय तीन छींके आईं। उन्हें शुभ माना गया। पहली छींक के समय उन्होंने कहाµ‘यह साधु होनहार होगा।’ दूसरी छींक के समय कहाµ‘यह मुनि अग्रणी बनकर विचरेगा।’ तीसरी बार छींक के समय उनके सहज शब्द निकलेµ‘यह मुनि जीतमल का भार संभालने वाला होगा।’
महान् पुरुषों की वाणी असफल नहीं होती। मघवागणी के संबंध में ऋषि रायचंदजी द्वारा कहे गए शब्द सही प्रमाणित हुए। उन्होंने जयाचार्य का उत्तराधिकार संभाला।
मुनि मघराजजी ने जयाचार्य की सन्निधि में रहकर बहुमुखी विकास किया। नम्रता, सहनशीलता, गंभीरता, पापभीरूता आदि गुण उनमें स्वभावगत थे। गुरु के प्रति उनका समर्पण अद्भुत था तो गुरु का भी उनके प्रति उतना ही वात्सल्य था। गुरु-शिष्य की यह अभिन्नता वात्सल्य और समर्पण का एक आदर्श उदाहरण है। (क्रमशः)