संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(2) यतं चरेद् यतं तिष्ठेत्, शयीतासीत वा यतम्।
यतं भु×जीत भाषेत, साधकः प्रयतो भवेत्।।
भगवान् ने कहाµसाधक संयमपूर्वक चले, संयमपूर्वक ठहरें, संयमपूर्वक सोएँ, संयमपूर्वक बैठें, संयमपूर्वक खाएँ और संयमपूर्वक बोलें। उसे प्रत्येक कार्य में संयत होना चाहिए।
यतना का अर्थ हैµजागना। जो जागता है वह पाता है और जो सोता है वह खोता है। जागरूकता प्रत्येक क्रिया में सरसता भर देती है। असावधानी सरस जीवन को भी नीरस बना देती है। भगवान् महावीर ने साधक को सचेत करते हुए कहा हैµ‘तुम समय मात्र भी प्रमाद मत करो।’ प्रमाद जीवन का सबसे बड़ा शत्रु है। हमारी लापरवाही हमारे लिए ही अभिषाप बनती है। कार्य को समय पर न करने से काल उसका रस पी जाता है। मनुष्य के लिए फिर अनुताप शेष रहता है।

(3) जलमध्ये गता नौका, सर्वतो निष्परिस्रवा।
गच्छन्ती वाऽपि तिष्ठन्ती, परिगृह्वाति नो जलम्।।
जल मध्य में खड़ी हुई नौका, जो सर्वथा छिद्ररहित हो, चाहे चले या खड़ी हो, जल को ग्रहण नहीं करती। उसमें जल नहीं भरता।

(4) एवं जीवाकुले लोके, मुमुक्षुः संवृतास्रवः।
गच्छन् वा नाम तिष्ठन् वा, तादत्ते पापकं मलम्।।
इसी प्रकार जिस साधक ने आòव का निरोध कर लिया, वह इस जीवाकुल लोक में रहता हुआ, चाहे चले या खड़े रहे, पाप-मल को ग्रहण नहीं करता।
जो साधक अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ शुभ में प्रवृत्त हुआ है, उसका ध्येय हैµप्रवृत्ति-मुक्त होना। प्रवृत्ति-मुक्त होने से पूर्व जो शरीरापेक्ष क्रिया करता है, वह कैसे पाप रहित हो, इसका उत्तर यहाँ दिया है। महावीर ने उसके लिए एक छोटा-सा सूत्र दिया है। वह हैµयतना, जागरूकता, सचेतनता। यतना को धर्म-जननी कहा हैµ‘जयणेव धम्म जननी’। यतना का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि आप जो क्रिया कर रहे हैं उसमें डूबे रहें। डूबने का अर्थ हैµआपको अपना होश नहीं है। यतना अपने आपमें बहुत गहरी है। उसका अभिप्राय हैµप्रत्येक क्रिया के साथ आपको अपनी स्मति रहे। जैसेµमैं चल रहा हूँ, बैठ रहा हूँ, बोल रहा हूँ, लेट रहा हूँ, भोजन कर रहा हूँ, विचार कर रहा हूँ आदि-आदि। स्वयं की स्मृति सतत उजागर रहने से क्रिया में होने वाला प्रमाद स्वतः शांत होता चला जाएगा। साधक का आचार के प्रति इतना सचेतन होने की आवश्यकता नहीं है जितना कि स्व-स्मरण के प्रति है। कबीर ने कहा हैµयह शरीर रूपी चादर सबको मिली है, किंतु प्रायः सभी मैली कर देते हैं। वे यतना (जतन) नहीं रखते ‘दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’। मैंने उस चादर को बड़ी सावधानी से धारण किया अतः वैसी की वैसी छोड़ रहा हूँ। यह कठिन है इसलिए कि सावधानी नहीं है। सावधानी साधना के क्षेत्र में प्रवेश का प्रथम चरण है। पाप कर्म का प्रवेश जागरूकता में संभव नहीं है। (क्रमशः)