उपासना
(भाग - एक)
मुनि मघराजजी विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। वे सतत अप्रमत्त और स्थिरयोगी थे। उनकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि एक बार कंठस्थ किए हुए ग्रंथ को वे प्रायः भूलते नहीं थे। उनका हृदय बालक की तरह सरल था। तेरापंथ में संस्कृत के वे प्रथम पंडित कहे जाते थे। साधुओं में भी वे सबके प्रिय और विश्वासपात्र थे। एक बार का प्रसंग है-किसी बालमुनि से कोई गलती हो गई। मामला पंचों (आचार्य द्वारा नियुक्त पाँच साधु) के पास गया। जब निर्णय सुनाया जाने वाला था तब बालमुनि ने जयाचार्य से प्रार्थना की कि मुझे निष्पक्ष न्याय मिल सकेगा, ऐसी आशा नहीं है। जयाचार्य ने पूछा-‘तुझे किस पर विश्वास है? क्या तुझे मघजी का निर्णय मान्य है?’ उस साधु ने तत्काल स्वीकृति दे दी। उसी दिन से जयाचार्य ने मुनि मघराजजी को पाँच पंचों के ऊपर ‘श्रीपंच’ नियुक्त कर दिया। उस समय मघवागणी की अवस्था मात्र चौदह वर्ष की थी।
मुनि मघराजजी की विरल विशेषताओं से प्रभावित होकर श्रीमज्जयाचार्य ने वि0सं0 1920 में उनकी युवाचार्य पद पर नियुक्ति की। उस समय उनकी आयु चौबीस वर्ष की थी। मघवागणी अठारह वर्ष तक युवाचार्य पद पर रहे। युवाचार्य अवस्था में उन्होंने धर्मसंघ के कई गुरुतर कार्य संभालकर जयाचार्य को निश्चिंत बना दिया था। वि0सं0 1938 में जयाचार्य का स्वर्गवास होने के पश्चात् उन्होंने जयपुर में तेरापंथ का शासन-भार संभाला। मघवागणी कोमल प्रकृति के आचार्य थे। वे किसी को कड़ा उलाहना नहीं देते थे। किसी की गलती होने पर मधुर शब्दों में कहा करते-‘तुम गलती करते हो, तब मुझे कहना पड़ता है।’ धर्मसंघ के संचालन में मघवागणी की कोमल अनुशासना सामूहिक जीवन में अहिंसा का अभिनव प्रयोग था।
उनके शासनकाल में एक सौ उन्नीस दीक्षाएँ हुईं। उनमें छत्तीस साधु और तिरासी साध्वियाँ थीं। मघवागणी का स्वर्गवास वि0सं0 1949 चैत्र कृष्णा पंचमी के दिन सरदारशहर में हुआ।
आचार्य माणकगणी
माणकगणी तेरापंथ के छठें आचार्य थे। उनका जन्म वि0सं0 1912 भाद्रपद कृष्णा चतुर्थी को जयपुर नगर के जौहरी परिवार में हुआ। उनका गौत्र खारड़ था और जाति श्रीमाल थी। उनके पिता का नाम हुकमीचंदजी एवं माता का नाम छोटांजी था। उनके बाबा का नाम लिछमनदासजी (लक्ष्मणदासजी) था।
माणकगणी को पिता का वात्सल्य एवं माता की ममता अधिक समय तक प्राप्त नहीं हो सकी। उनकी शैशव अवस्था में ही माता-पिता दोनों का देहावसान हो गया। लाला लिछमनदासजी ने अत्यंत स्नेह के साथ बालक माणक का पालन-पोषण किया एवं उसे धार्मिक संस्कारों से संस्कारित किया। बालक माणक भी अपने बाबा के प्रति अत्यंत विनम्र था एवं उनके प्रति विशेष आदर-भाव रखता था।
वि0सं0 1928 का चातुर्मास जयाचार्य ने जयपुर किया। उस चातुर्मास में बालक माणक को वैराग्य हुआ। बालक ने तत्त्वज्ञान सीखा और स्वयं को साधना के लिए तैयार कर लिया। वि0सं0 1928 फाल्गुन शुक्ला एकादशी को जयाचार्य द्वारा लाडनूं में माणकगणी का दीक्षा-संस्कार संपन्न हुआ। उस समय उनकी आयु साढ़े सोलह वर्ष की थी।
माणकगणी प्रकृति से विनम्र थे। उनकी बुद्धि तीक्ष्ण थी। वे हर बात को बड़ी शीघ्रता से ग्रहण कर लेते थे। दीक्षा लेने के बाद कुछ ही वर्षों में उन्होंने आगमों का गंाीर और तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। उनकी विशेषताओं से प्रभावित होकर जयाचार्य ने उन्हें दीक्षा के तीन वर्ष बाद ही अग्रणी बना दिया।
जयाचार्य के स्वर्गवास के पश्चात् मघवागणी की अनुशासना में उन्होंने अपने जीवन का विकास किया। वि0सं0 1949 चैत्र कृष्णा द्वितीया को मघवागणी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। युवाचार्य-अवस्था में रहने का उन्हें केवल चार दिन का ही अवसर मिला। वि0सं0 1949 चैत्र कृष्णा अष्टमी को सरदारशहर में वे आचार्य पद पर आसीन हुए।
(क्रमशः)