त्याग की चेतना की पावन भूमि है बगड़ी: आचार्यश्री महाश्रमण
महामना भिक्षु की अभिनिष्क्रमण भूमि पर वर्तमान महामहिम आचार्यश्री महाश्रमण का पदार्पण
बगड़ी नगर, 4 दिसंबर, 2022
तेरापंथ धर्मसंघ का ऐतिहासिक स्थल बगड़ी जहाँ आचार्य भिक्षु की सांसारिक अवस्था में शादी हुई थी। उनकी दीक्षा भी पूज्य रघुनाथ जी के करकमलों से यहीं पर हुई थी। बाद चैत्र शुक्ला नवमी वि0सं0 1817 को रघुनाथजी के संघ से अभिनिष्क्रमण किया था। बगड़ी की जैतसिंह की छत्री आज भी कह रही है कि संत भीखण ने जब अभिनिष्क्रमण किया था तो प्रथम रात्रि का प्रथम पड़ाव यहीं हुआ था। आज उसी स्थल पर आचार्य भिक्षु के परंपर-पट्टधर, तेरापंथ के एकादशम अधिशास्ता आचार्यश्री महाश्रमण जी पधारे। महातपस्वी ने पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए फरमाया कि 84 लाख जीव योनियाँ बताई गई हैं। उनमें यह मनुष्य जन्म दुर्लभ होता है। लंबे काल तक भी कई बार प्राणी को मनुष्य जन्म नहीं मिलता। कर्मों के गाढ़ विपाक से मनुष्य जन्म की प्राप्ति मुश्किल हो जाती है। इसलिए गौतम के नाम संदेश दिया गया कि गौतम! समय मात्र प्रमाद मत करो।
दुर्लभ मानव जीवन का उपयुक्त प्रयोग करना चाहिए। इस मानव जीवन को जो पाप-भोग, विलास, व्यसन में बीता सकता है, तो वे मानव जीवन में धर्म की साधना भी कर सकता है। जो आदमी मानव जीवन को प्राप्त कर पाप में जीवन बिताता है, वह आदमी मानो अपने घर में कल्पवृक्ष को उखाड़ फैंककर उस जगह धतुरे का पौधा लगाने का प्रयास करता है। सारे आदमी साधु तो नहीं बन सकते पर जीवन में मानवता से नीचे न जाएँ। गृहस्थ में रहकर भी कदाचार, भ्रष्टाचार से बचें। अहिंसा, नैतिकता, संयम का जीवन जीने का प्रयास करें तो इस मानव जीवन की गरिमा बनी रह सकती है।
आज हम बगड़ी आए हैं। मारवाड़ के क्षेत्रों में बगड़ी, कंटालिया और सिरियारीµये तीन क्षेत्र हमारे परम वंदनीय आचार्य भिक्षु से जुड़े हुए हैं। बगड़ी उनकी अभिनिष्क्रमण और त्याग की चेतना की भूमि है। उनके दीक्षा स्थल वट, बड़ला भी आज मैं जाकर आया था। त्याग का पथ वहाँ स्वीकार किया था। दूसरा अभिनिष्क्रमण संन्यास से विशेष साधना के लिए हुआ था। सांसारिक जीवन का रिश्ता भी बगड़ी के साथ है। आचार्य भिक्षु ने मानव जीवन को कितने बढ़िया ढंग से जीना स्वीकार किया था।
दुनिया में कोई-कोई व्यक्ति ऐसा होता है, जो कुछ विशेष करने का सामर्थ्य रखता है। दो चीजें हैंµशांति और क्रांति। शांति का महत्त्व बहुत है। शांति के साथ जहाँ जरूरत है, क्रांति भी हो जाए। निम्न श्रेणी के लोग वो होते हैं, जो विघ्न के भय से कोई अच्छे कार्य का प्रारंभ ही नहीं करते हैं। मध्यम श्रेणी के वे जो कार्य प्रारंभ तो कर देते हैं, पर जब विघ्नों की बौछार आती है, तो कार्य को बीच में ही छोड़ देते हैं। उत्तम श्रेणी के लोग वे होते हैं, जो बार-बार विघ्नों से आहत होने पर भी वे अपने स्वीकार किए हुए मार्ग को नहीं छोड़ते।
आचार्य भिक्षु के सामने भी कितनी कठिनाइयाँ आई होंगी, किंतु जो महापुरुष साधक, आत्मबली और मनोबली होते हैं, वे कठिनाइयों की इतनी परवाह नहीं करते। अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं। मैं जैतसिंह की छत्री के प्रांगण में भी जाकर आया था। ये ऐतिहासिक स्थल है। क्रांति के साथ कठिनाई साथ हो गई थी। ये भगवान का जो पावन पथ है, उस पर जो कठिनाई को भी झेलकर चले और संकल्प हो, उसका बड़ा महत्त्व होता है। ‘प्रभो! तुम्हारे पावन पथ पर जीवन अर्पण है सारा।’ गीत का सुमधुर संगान पूज्यप्रवर ने किया। हमारे भीतर की त्याग की चेतना, कठिनाइयों को झेलने के मनोबल की चेतना पुष्ट रहे, यह काम्य है।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि आचार्यप्रवर आज वहाँ पधारे हैं, जहाँ आचार्य भिक्षु ने चार-चार चातुर्मास किए थे। यहाँ मुनि भिक्षु ने नया जन्म प्राप्त किया था। वि0सं0 1817 में जीवन की नई यात्रा का शुभारंभ किया था। यात्रा शुरू करते हैं, तूफान आया और जैतसिंह की छत्री प्रथम प्रवास स्थल बन गया था। अनेक कष्ट उनके सामने आए पर उन्होंने शांति से सहन किए थे। आचार्यप्रवर हमें आचार निष्ठा, मर्यादा निष्ठा, अनुशासन निष्ठा का पाठ पढ़ाते हैं। हमारी गुरु निष्ठा बनी रहे।
पूज्यप्रवर के स्वागत में प्रवासाध्यक्ष जयंतीलाल सुराणा, स्थानीय महिला मंडल, संतोष धारीवाल (सभामंत्री), ज्ञानशाला के ज्ञानार्थी, ठाकुर साहब भगवंत सिंह, स्थानीय सरपंच भुंडाराम चौधरी, एस0एस0 जैन संघ से अशोक कोठारी ने अपनी भावना अभिव्यक्त की। अणुव्रत समिति से सुरेश दवे ने भी भावना व्यक्त की। मुनि यशवंत कुमार जी, साध्वी सिद्धप्रभा जी ने अपने-अपने चातुर्मास संपन्न कर श्रीचरणों में उपस्थित हो अपनी भावना अभिव्यक्त की। पूज्यप्रवर ने फरमाया कि हमारे साधु-साध्वियाँ आए हैं। सभी के खूब चित्त समाधि रहे। विकास करते रहें। यह परमपूज्य भिक्षु स्वामी से जुड़ा स्थान है। इस स्थल का नाम आचार्य भिक्षु समवसरण रखा जा सकता है। कार्यक्रम का संचालन करते हुए मुनि दिनेश कुमार जी ने समझाया कि साधु बैठ्या समता में, गृहस्थ बैठ्या ममता में। साधु तो संयोग और घर से मुक्त भिक्षाचर होते हैं।