साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

(113)

युगपुरुष मनस्वी सन्तप्रवर
बन शांतिदूत भू पर आए
बदली युगजीवन की धारा
नव गीत क्रांति के जब गाए।।

श्रम की बूँदों का सिंधु सदा
लहराता था उनके आगे।
उसकी लहरों का नर्तन सुन
अलसाए सोए मन जागे।।

वे सान्द्र स्निग्ध कोमल उदार
नयनों में करुणा का सागर।
रस खींचा दुनिया ने उतना
जितनी जिसके कर में गागर।।

चलते निर्भय निश्चिन्त सदा
वे आँधी में तूफानों में।
चर्चे उनके हर गाँव नगर
घर ऑफिस और दुकानों में।।

हो खड़े सत्य की धरती पर
सपनों की दुनिया में जीते।
दिन कभी न वे होंगे विस्मृत
जो उनके साये में बीते।।

वे थे रहस्यमय ज्योतिर्मय
जन-जन के भाग्यविधाता थे।
आँखों में शनि मणि मस्तक में
युगद्रष्टा युग-निर्माता थे।।

क्या बात मुकद्दर की उनके
वे पैदाइशी सिकंदर थे।
जीवन की होगी क्या मिसाल
जैसे बाहर थे अंदर थे।।

हर सुबह शुभकर नाम जपें
हर शाम ध्यान उनका धर लें।
छवि बसा अलौकिक नयनों में
संत्रास प्राण का सब हर लें।।

(114)
कर सारे सपने पूरे कृतकाम हो गए
पर मेरे सपनों में तो अब भी तुम आते।।

अपनों में अनुराग रहा है सारे जग का
पर तुम तो बेगानों को निज छाँह दे रहे
चिर परिचित दुनिया से मानो ऊब गए हो
अनजानी अनचीन्ही क्यों तुम राह ले रहे
क्या अपराध हुआ है इन अपने लोगों से
भूल गए क्यों तुम सारे वे रिश्ते-नाते।।

मझधारा में प्राण डूबते-उतराते हैं
पर खाली नौका को तुम उस पार खे रहे
हर धड़कन की आह पहुँच जाती है तुम तक
अपने गीतों पर ही क्यों तुम ध्यान दे रहे
कितने मंसूबे बाँधे इस जग ने तुम पर
बतलाओ फिर क्यों उसको यों ही भरमाते।।

तुमने जितनी साँसें दी जीने की खातिर
उनको ही हम आज यहाँ अविकल जीते हैं
तुमने कर विषपान स्वयं इमरत बाँटा था
उसे आज तक मुग्ध भाव से हम पीते हैं
पल-पल सफल तुम्हारा बीता इस धरती पर
अमरलोक में कैसे अपना समय बिताते?

(क्रमशः)