मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

पहला प्रकरण

(1) अथ मनोनुशासनम्।।
(1) इस ग्रंथ में मन को अनुशासित करने की पद्धति बतलाई गई है अतः इसका नाम मनोनुशासनम् है।

ध्येयनिष्ठा
जीवन का सर्वोच्च ध्येय है-मुक्ति। बंधन किसी भी व्यक्ति को प्रिय नहीं है। जिसमें चेतना का किंचित् भी विकास है, उसमें मुमुक्षा है और वह इतनी अपरिहार्य है कि उसे मिटाया नहीं जा सकता। इसीलिए यह कहना सर्वथा संगत है कि मुक्ति जीवन का सर्वोच्च ध्येय है। जिसके ध्येय और प्रवृत्ति में विसंगति होती है, वह ध्येय के निकट नहीं पहुँच पाता। जैसे-जैसे ध्येय और प्रवृत्ति की विसंगति मिटती जाती है, वैसे-वैसे ध्येय सधता जाता है।
एक व्यक्ति का ध्येय है मुक्ति और वह खाता है शरीर की पुष्टि के लिए, सुनता है कान की तृप्ति के लिए और देखता है आँख की तृप्ति के लिए। यह ध्येय की विसंगति है। जब हमारा ध्येय अनेक रूपों में बँट जाता है, तब हम मूल को नहीं सींच पाते। शाखाओं, पत्तों और फूलों को सींचने का अर्थ होता है उनका सूख जाना। मूल सींचा जाता है तो शाखाएँ, पत्र और पुष्प अपने आप अभिषिक्त हो जाते हैं। यह ध्येय की संगति है। मूल को छोड़कर शेष अवयवों को सींचना ध्येय की विसंगति है। खाना शरीर-निर्वाह के लिए आवश्यक है। सुनना और देखना इंद्रियों की अनिवार्यता है। कान के पर्दे और आँख के गोलक को फोड़ा नहीं जा सकता। कोई भी आदमी निरंतर कान में रूई और आँख पर पट्टी बाँधकर बैठ नहीं सकता। जिसे आँख प्राप्त है, वह देखता है और जिसे कान प्राप्त है, वह सुनता है। देखना और सुनना अपने-आप में अच्छा भी नहीं है और बुरा भी नहीं है। उसमें अच्छाई और बुराई ध्येय के आधार पर फलित होती है। हम मुक्ति के लिए देखें, मुक्ति के लिए सुनें, मुक्ति के लिए खाएँ और मुक्ति के लिए जिएँ तो हमारा जीना भी साधना है, खाना भी साधना है, देखना और सुनना भी साधना है।
आचार्य हरिभद्र ने इसी तथ्य की अभिव्यक्ति इन शब्दों में की है-‘मोक्खेण योयणाओ जोगो सव्वो वि धम्मवावारो’-वह सारा धार्मिक व्यापार योग है जो व्यक्ति को मुक्ति से जोड़ता है। योग वही है जो मुक्ति के लिए है और मुक्ति से जुड़ा हुआ है। बंधन के लिए या बंधन से जोड़ने वाली कोई भी प्रवृत्ति न धार्मिक हो सकती है और न यौगिक।
भगवान् महावीर ने कहा है-संयम से चलो, संयम से खड़े रहो, संयम से बैठो, संयम से सोओ, संयम से खाओ और संयम से बोलो, फिर पाप-कर्म का बंधन नहीं होगा। बंधन वहीं है जहाँ संयम नहीं है और मुकित का ध्येय निष्ठित हुए बिना जीवन में संयम आता नहीं। मुक्ति हमारे जीवन का ध्येय है और संयम ध्येय-पूर्ति की सााना है। उन दोनों में सामंजस्य है। मुक्ति और असंयम में सामंजस्य नहीं है। हमारा ध्येय मुक्ति हो और हमारी जीवनगत प्रवृत्तियों में संयम न हो, वह ध्येय और ध्येय-पूर्ति की विसंगति है। जीवन में संयम लाने का प्रयत्न हो और मुक्ति का ध्येय निष्ठित न हो, वह भी विसंगति है। विसंगति की दशा में जिसकी निष्पत्ति हम चाहते हैं, वह निष्पन्न नहीं होता। इसकी निष्पत्ति ध्येय और साधना के सामंजस्य से ही हो सकती है।
कोई व्यक्ति मुमुक्षु है तो उसमें संयम होना स्वाभाविक है। मुमुक्षा उसकी प्रवृत्तियों का सहज भाव से नियमन करती है। मुमुक्षु व्यक्ति खाएगा किंतु खाने में आसक्त नहीं होगा। वह देखेगा और सुनेगा किंतु देखने और सुनने में उसकी आसक्ति नहीं होगी। आसक्ति और अनासक्ति के बीच भेदरेखा ध्येय के द्वारा ही खींची जाती है। जिसमें मुमुक्षा है, उसकी प्रवृत्ति इंद्रिय-तृप्ति के लिए नहीं हो सकती किंतु प्राप्त आवश्यकता की पूर्ति के लिए होती है। जहाँ प्रवृत्ति ध्येय की पूर्ति के लिए की जाती है, वहाँ धूप से बचाने वाली छत बन जाती है और जहाँ ध्येय को भुलाकर प्रवृत्ति की जाती है, वहाँ वह मोतिया बन जाती है। छत का हमारे लिए उपयोग है इसलिए हम उसे पसंद कर सकते हैं, किंतु मोतिया हमारी ज्योति को आवृत्त करता है इसलिए उसे पसंद नहीं किया जा सकता। हमारी ध्येयनिष्ठा दुर्बल होती है, उस स्थिति में प्रवृत्ति मोह और आवरण बन जाती है और हमारी ध्येयनिष्ठा प्रबल होती है तब प्रवृत्ति हमारा बचाव करने लग जाती है। इस सारी परिस्थिति में जो सत्य उभरता है वह है ध्येयनिष्ठा। जिसकी ध्येयनिष्ठा जितनी प्रबल होगी वह उतना ही जीवन की विसंगतियों से बच पाएगा। ध्येयनिष्ठा के अभाव में जीवन की विसंगतियों को मिटाने की बात हम सोच सकते हैं किंतु उन्हें मिटा नहीं पाते।
(2) इंद्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं संज्ञानं मनः।।
(3) स्पर्शन-रसन-घ्रान-चक्षुः श्रोत्राणि इंद्रियाणि।।
(2) मन संज्ञान का एक स्तर है। उसकी व्याख्या तीन विशेषणों से की जाती है-
(क) वह इंद्रियों के द्वारा गृहीत विषयों में प्रवृत्त होता है, इसलिए इंद्रिय-सापेक्ष है।
(ख) वह शब्द, रूप आदि सब विषयों को जानता है, इसलिए सर्वार्थग्राही है।
(ग) वह भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों का संकलनात्मक ज्ञान करता है, इसलिए त्रैकालिक है।
(3) इंद्रियाँ पाँच हैं-(1) स्पर्शन, (2) रसन, (3) घ्राण, (4) चक्षु, (5) श्रोत्र।

इंद्रिय और मन
चैतन्य की दो भूमिकाएँ हैं-विकसित और अविकसित। विकास का सर्वाधिक निम्नस्तर एकेंद्रिय में होता है-उसके केवल एक स्पर्श इंद्रिय का विकास होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि जीवों के चैतन्य का क्रमिक विकास होता है। द्वीन्द्रिय को दो इंदिय स्पर्शन और रसन का ज्ञान प्राप्त होता है। त्रीन्द्रिय के घ्राण, चतुरिन्द्रिय के चक्षु और पंचेन्द्रिय के श्रोत्र विकसित हो जाते हैं। इंद्रिय विकास चैतन्य का पहला स्तर है। चैतन्य का दूसरा स्तर है-मानसिक विकास। वह केवल पंचेन्द्रिय जीवों को ही प्राप्त होता है।
मनुष्य पंचेन्द्रिय है और मानसिक विकास भी उसे प्राप्त है। यद्यपि इंद्रिय और मन दोनों चैतन्य के विकास हैं, फिर भी दोनों की विकास-यात्रा में बहुत तारतम्य है, इंद्रियाँ केवल वर्तमान को ही जानती हैं। मन भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों को जानता है। इंद्रियों में आलोचनात्मक ज्ञान की शक्ति नहीं है। मन में आलोचना की क्षमता है। वह इंद्रियों द्वारा गृहीत विषयों का ज्ञान करता है और स्वतंत्र चिंतन भी।
संज्ञान दो प्रकार के होते हैं-तात्कालिक और त्रैकालिक। तात्कालिक संज्ञान चींटी जैसे क्षुद्र प्राणियों में भी होता है। वे इष्ट की प्राप्ति के लिए प्रवृत्त और अनिष्ठ से बचने के लिए निवृत्त होते हैं किंतु वे भूत और भविष्य का संकलनात्मक संज्ञान नहीं कर सकते। उनमें स्मृति और कल्पना का विकास नहीं होता। त्रैकालिक संज्ञान में स्मृति और कल्पना का विकास होता है तथा उसमें भूत और भविष्य के संकलन की क्षमता होती है। इसलिए मन को दीर्घकालिक संज्ञान भी कहा जाता है।

(क्रमशः)