उपासना
उपासना
(भाग - एक)
माणकगणी का वर्ण गौर, कद लंबा और कंठ मधुर व तेज था। शारीरिक प्रकृति से वे इतने कोमल थे कि सर्दी लगने पर एक लौंग लिया करते। यदि उससे अधिक ले लेते तो उन्हें गर्मी का आभास होने लगता। वे लंबी यात्राएँ पसंद करते थे। तेरापंथ के आचार्यों में हरियाणा में सर्वप्रथम पधारने वाले माणकगणी ही हैं। संघ-विकास की दृष्टि से माणकगणी ने अपना समय उन क्षेत्रों को अधिक दिया जहाँ पूर्वाचार्यों को विराजना कम हो सकता था।
माणकगणी का चिंतन परंपरापोषित व रूढ़ नहीं था। उनके द्वारा धर्मसंघ में कई नए उन्मेष आने की संभावना थी। लेकिन धर्मसंघ उनकी शासना से लंबे समय तक लाभान्वित नहीं हो सका। बयालीस वर्ष की अल्पायु में ही वि0सं0 1954 कार्तिक कृष्णा तृतीया को सुजानगढ़ में उनका अचानक स्वर्गवास हो गया। वे आचार्य के रूप में पाँच वर्ष की संघ को सेवा दे सके। वे अपने पीछे किसी उत्तराधिकारी को नियुक्त नहीं कर सके।
तेरापंथ धर्मसंघ एक आचार्य केंद्रित धर्मसंघ है। माणकगणी दिवंगत हो गए। पीछे कोई उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त नहीं। कौन दायित्व संभाले? समूचे धर्मसंघ के लिए एक महान् चिंता का विषय था। पर दूसरे शब्दों में कहें तो चिंता नहीं, कसौटी का समय था। उस समय समूचे संघ ने एकमत से सप्तम आचार्य के रूप में डालगणी को चुनकर कसौटी पर खरे उतरने का एक अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया। माणकगणी के आचार्य-काल में चालीस दीक्षाएँ हुईं। उनमें पंद्रह साधु और पचीस साध्वियाँ थीं।
आचार्य डालगणी
पूज्य डालगणी तेरापंथ के सप्तम आचार्य थे। वे आगम-मर्मज्ञ, शास्त्रार्थ-निपुण, दृढ़-संकल्पी, उग्रविहारी, कष्टसहिष्णु एवं तेजस्वी आचार्य थे। उनका जन्म वि0सं0 1909 आषाढ़ शुक्ला चतुर्थी को उज्जयिनी नगरी में हुआ। उनके पिता का नाम कानीरामजी एवं माता का नाम जड़ावांजी था। उनका गोत्र पीपाड़ा था। पिता का देहावसान उनकी बाल्यावस्था में ही हो गया था। माता जड़ावांजी ने ही पिता और माता दोनों की भूमिका का कुशलता से निर्वाह किया। जड़ावांजी धार्मिक प्रकृति की महिला थी। पति की मृत्यु से उन्हें भोगप्रधान जीवन से विरक्ति हो गई। बालक डालचंद ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश करने तक काफी समझदार हो गया था। माता जड़ावांजी ने पारिवारिक जनों के संरक्षण में पुत्र की व्यवस्था कर संयम-जीवन अंगीकार कर लिया।
माता की दीक्षा ने बालक डालचंद को भी संयम जीवन ग्रहण करने हेतु उत्सुक बना दिया। उसकी वैराग्य-भावना दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। वि0सं0 1923 भाद्रपद कृष्णा द्वादशी के दिन इंदौर में जयाचार्य की अनुमति से मुनि हीरालालजी ने उन्हें दीक्षित किया। मुनि-जीवन में डालगणी को चार वर्ष तक जयाचार्य का निकट सान्निध्य प्राप्त हुआ। डालगणी के लिए यह समय ज्ञानार्जन की दिशा में वरदान सिद्ध हुआ। उन्होंने आगमों का गंभीर अध्ययन किया। उनकी तलस्पर्शी प्रतिभा आगमों के सूक्ष्म रहस्यों को खोजने में सक्षम सिद्ध हुई। उनकी तार्किक मेधा ने उन्हें महान् चर्चावादी बनाया। अनेक बार उन्होंने शास्त्रविद् संतों, पंडितों एवं श्रावकों के साथ धर्म-चर्चाएँ कीं। वि0सं0 1930 में वे अग्रणी बने। अग्रगण्य अवस्था में उन्होंने सुदूर प्रदेशों की यात्राएँ कीं। कच्छ की यात्रा उन्होंने तीन बार की। कच्छ की जनता उनके तेजोमय व्यक्तित्व से अभिभूत थी। वहाँ के लोग उन्हें ‘कच्छी पूज’ कहते थे।
आचार्य माणकगणी के स्वर्गवास के पश्चात् वि0सं0 1954 में डालगणी तेरापंथ के सप्तम आचार्य बने। तेरापंथ की व्यवस्था के अनुसार भावी आचार्य का निर्वाचन वर्तमान आचार्य ही करते हैं। पर माणकगणी का बयालीस वर्ष की अल्पायु में ही अचानक स्वर्गवास हो गया। उस समय भावी आचार्य का निर्वाचन एक जटिल पहेली थी। किंतु सब साधु-साध्वियों ने एकमत होकर डालगणी का नाम निर्वाचित कर लिया। यह इतिहास की विलक्षण घटना है और डालगणी के व्यक्तित्व का उजला पृष्ठ है।
(क्रमशः)