संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(9) आतङ्के उपसर्गे च, जातायां विरतौ तनौ।
ब्रह्मचर्यस्य रक्षायै, दयायै प्राणिनां तथा।।
(10) नानारूपं तपस्तप्तुं, कर्मणां शोधनाय च।
आहारस्य परित्यागः, कर्तुमर्हति संयतिः।। (युग्मम्)
असाध्य रोग, भयंकर उपसर्ग, शरीर में विरक्ति, ब्रह्मचर्य की रक्षा, जीव-हिंसा से विरति, नाना प्रकार के तप और कर्म के विशोधन के लिए मुनि को भोजन का परित्याग करना उचित है।
प्रस्तुत श्लोकों में भोजन करने और न करने के कारणों का उल्लेख है।
भोजन करने के पाँच कारण ये हैंµ(1) क्षुधा को शांत करने के लिए। (2) सेवा करने के लिए। (3) प्राणों को धारण करने के लिए। (4) संयम की सुरक्षा के लिए। (5) धर्म-चिंता करने के लिए।
भोजन न करने के छह कारण ये हैंµ(1) रोग हो जाने पर। (2) शरीर के प्रति विरक्ति हो जाने पर। (3) ब्रह्मचर्य-पालन के लिए। (4) दया के लिए। (5) संकल्प को दृढ़ करने के लिए। (6) प्रायश्चित्त के लिए।
ये सभी कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए निर्दिष्ट हैं।
साधक एकमात्र शरीर-निर्वहन करने के लिए खाता है, रस-तुष्टि के लिए नहीं। पुरुषार्थ की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन शरीर है। साधक के लिए उसकी सुरक्षा भी उतनी ही अपेक्षित है जितनी आत्मा की। शरीर के माध्यम से ही अशरीर की साधना की जाती है।
बौद्धि ग्रंथों में भी आहार करने की मर्यादा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि ‘भिक्षु-क्रीड़ा, मद, मंडन या विभूषा के लिए भोजन न करे किंतु शरीर को रखने के लिए, रोग के उपशमन के लिए तथा ब्रह्मचर्य के पालन के लिए भोजन करे।’
(11) अल्पवारमनासक्तः, वस्तून्यल्पानि संख्यया।
मात्रामल्पा×च भु×जानो, मिताहारो भवेद् यतिः।।
जो मुनि अनासक्त भाव से एक या दो बार खाता है, संख्या में अल्प वस्तुएँ और मात्रा में अल्प खाता है, वह मितभोजी है।
(12) जितः स्वादो जितास्तेन, विषयाः सकलाः परे।
रसो यस्यात्मनि प्राप्तः, स रसं जेतुमर्हति।।
जिसने स्वाद को जीत लिया, उसने सब विषयों को जीत लिया। जिसे आत्मा में रस-आनंद की अनुभूति हो गई, वही पुरुष रस-इंद्रिय-विषयों को जीत सकता है।
(क्रमशः)