उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य डालगणी

डालगणी के पास जयाचार्य, मघवागणी, माणकगणी-तीन आचार्यों की अनुभव संपदा थी। उन्होंने कुशलता के साथ तेरापंथ धर्मसंघ का संचालन किया और उसे अनुशासन, संगठन और मर्यादा की भूमिका पर तेजस्विता प्रदान की। डालगणी के जीवन में कोमलता और कठोरता का अपूर्व संगम था। वे इतने तेजस्वी थे कि उनके निकट रहने वाले संत भी उनको कोई बात निवेदन करने में सकुचाते थे। कोमल इतने थे कि भक्तों की प्रार्थना को पूर्ण करने के लिए वे अपने शरीर को परवाह न करते हुए कई बार यात्रा में लंबा घुमाव ले लेते थे।
डालगणी ने बारह वर्ष तक तेरापंथ धर्मसंघ के दायित्व को कुशलता से वहन किया। शारीरिक अस्वस्थता के कारण अंतिम दो चातुर्मास डालगणी के लाडनूं में हुए। वि0सं0 1966 भाद्रपद शुक्ला द्वादशी के दिन वे इस संसार से महाप्रयाण कर गए। डालगणी के शासनकाल में एक सौ इकसठ दीक्षाएँ हुईं। उनमें छत्तीस साधु और एक सौ पचीस साध्वियाँ थीं।

आचार्य कालूगणी

तेरापंथ के अष्टम आचार्य कालूगणी के शासनकाल को तेरापंथ का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। इस समय में तेरापंथ धर्मसंघ में शिक्षा, दीक्षा, साहित्य, साधना, कला आदि विभिन्न दिशाओं में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। यद्यपि कालूगणी के युग में भी संघ को भयंकर विरोधों का सामना करना पड़ा था पर वे विरोध अग्नि में तपे हुए स्वर्ण की भाँति संघ की गरिमा को और अधिक निखार देने वाले बने। पूज्य कालूगणी का जन्म राजस्थान के अंतर्गत बीकानेर संभाग के छापर नामक कस्बे में वि0सं0 1933 फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को हुआ। उनके पिता का नाम मूलचंदजी कोठारी व माता का नाम छोगांजी था। कालूगणी बचपन से ही बहुत संस्कारी थे। धर्म के प्रति उनके मन में विशेष अनुराग था। माता की धार्मिक वृत्ति ने उनके अनुराग को और अधिक वृद्धिंगत किया।
वि0सं0 1944 आश्विन शुक्ला तृतीया को पंचम आचार्य मघवागणी के करकमलों से उन्होंने अपनी माता छोगांजी के साथ दीक्षा ग्रहण की। मघवागणी के वरद हस्त की छत्रछाया में मुनि कालू की साधना एवं अध्ययन प्रारंभ हुआ। बालक अवस्था में भी कालूगणी बड़े स्थिरयोगी थे। बुद्धि तीक्ष्ण एवं प्रतिभा विलक्षण थी। मघवागणी की सन्निधि में रहने का उन्हें लगभग पाँच वर्ष का ही अवसर प्राप्त हुआ। इस छोटी-सी अवधि में उन्होंने अपने को बहुआयामी विकास दिया। मघवागणी के पश्चात् लगभग साढ़े चार वर्ष तक माणकगणी तथा बारह वर्ष तक डालगणी का शासनकाल रहा। पूज्य कालूगणी मघवागणी की तरह ही माणकगणी एवं डालगणी के सामने पूर्ण समर्पित एवं जागरूक बने रहे। उनकी अप्रमत्तता इतनी थी कि उन्हें कभी उलाहने के लिए एक भी शब्द संभवतः सुनना नहीं पड़ा। माणकगणी के स्वर्गवासी होने के पश्चात् अंतरिम शासन व्यवस्था को सुस्थिर बनाए रखने में कालूगणी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। डालगणी ने जब से आचार्यपद को संभाला, कालूगणी की विशेषताओं से वे बहुत परिचित हो गए। परिणामस्वरूप उन्हें अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति के संबंध में चिंतित होना नहीं पड़ा। कालूगणी के रूप में उनके सामने बना-बनाया व्यक्तित्व था। उन्हीं को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी समर्पित कर दिया। वि0सं0 1966 भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा को कालूगणी आचार्य पद पर आसीन हुए। कालूगणी का व्यक्तित्व अनूठा था। उसमें चुंबकीय आकर्षण था। एक बार तो विरोधी से विरोधी व्यक्ति भी सहसा उनके चरणों में नत हुए बिना नहीं रहता।

(क्रमशः)