साँसों का इकतारा

साँसों का इकतारा

115)

खोल झरोखा स्मृतियों का बैठी मैं कब से
नहीं झलक अपनी पल भर तुमने दिखलाई
कितनी बार पुकारा तुमको अंतर्मन से
हुई नहीं क्यों प्रभु दर पे मेरी सुनवाई।।

कच्ची कलियाँ जिस पल थी खिलने को आतुर
बनकर तुम ऋतुराज संघ-उपवन में आए
नई पौध को सिंचन व संरक्षण देकर
डाल-डाल पर ये सतरंगे सुमन खिलाए
सुमनों में सौरभ भरने के समय देवते!
छोड़ गए तुम कहाँ अचानक समझ न पाई।।

लहराते सागर-से उतरे तुम धरती पर
जगी चाह बन लहर तुम्हारे साथ रहूँगी
निस्तरंग जलनिधि होकर तुम हुए अगोचर
व्यथा अबोली मन की बोली किसे कहूँगी
नहीं रचे तटबंध कभी भी तुम्हें बाँधने
फिर क्यों यों बिन कहे गगन-सरणी अपनाई?

सूरज-सा ले तेज चमकते तुम गण-नभ में
रश्मि एक बनकर जिसकी मैं भी रहती थी
शिखर तलहटी की यात्रा में भेद न समझा
मन की मरुस्थली को नंदन वन कहती थी
करूँ सदा अनुगमन तुम्हारा देखा सपना
रहा अधूरा होगी अब कैसे भरपाई।।


(116)

उमड़ रहे भीतर कितने यादों के बादल
उन्हें बरसने दो रोको मत रे चेतन मन!
पीर पिघलकर बह जाए आँखों के द्वारा
नहीं और उसका कोई भी है आलंबन।।

नहीं कल्पना के पट मैंने बुने कभी भी
नित यथार्थ की भू पर अपने कदम बढ़ाए
क्यों सपना-सा दिखा गए फिर तुम जीवन में
क्या सोचा होगा उस पल हम समझ न पाए
छिपी हुई बातें कितनी भीतर-ही-भीतर
बता रहा उनको संस्मरणों का वातायन।।

वार सामने से जितने भी किए मौत ने
झेल लिए उन सबको तुमने सहज भाव से
मिली सूचना कभी मौत आने वाली है
रहे पूर्णतः मुक्त देवते! तुम तनाव से
दबे पाँव चलकर आई वह सहमी-सहमी
दिखा गई नादान स्वयं का छिछलापन।।

रही भव्यता और दिव्यता जो जीवन में
शब्दों की गागर में वह ना कभी समाई
धरती से नभ तक फैला आलोक तुम्हारा
पर अपने नयनों में उसको आंज न पाई
भ्रम के घेरे से सबको बाहर निकाल कर
अमिट सत्य का करा दिया तुमने दिग्दर्शन।।

(क्रमशः)