मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

आचार्य तुलसी

पहला प्रकरण

इन काषायिक भावों के द्वारा मनुष्य में अज्ञान, संशय, विपर्यय, मोह, आवरण आदि घटित होते हैं। महर्षि पतंजलि ने प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति को वृत्ति माना है। वृत्तियों का शोधन तपोयोग से होता है। पानी, हवा और धूप के अभाव में अंकुरित बीज भी मुरझा जाता है। इसी प्रकार पोषक सामग्री के अभाव में अर्जित संस्कार निर्वीर्य बन जाते हैं। गंदा जल शोधक द्रव्यों के प्रयोग से स्वच्छ हो जाता है। इसी प्रकार तपोयोग के द्वारा वृत्तियों के दोष विलीन हो जाते हैं। इस शोधन की प्रक्रिया पर अग्रिम पृष्ठों में प्रकाश डाला जाएगा।

(4) आत्ममात्रापेक्षं अतीन्द्रियम्।।
(5) चेतनावद् द्रव्यं आत्मा।।
(6) ज्ञानदर्शन सहजानंद सत्यवीर्याणि तत्स्वरूपम्।।
(7) परमाणुसमुदयैस्तदावरणविकरणे।।
(8) तत्संसर्गाऽसंसर्गाभ्यां आत्मा द्विविधः।।
(9) बद्धो मुक्तश्च।।
(10) स्वरूपोपलब्धिर्मुक्तिः।।

(4) पौद्गलिक साधनों की अपेक्षा रखे बिना केवल आत्मा के द्वारा जो प्रत्यक्षज्ञान होता है, उसे अतीन्द्रिय कहा जाता है।
(5) जो द्रव्य चेतनावान होता है, उसे आत्मा कहा जाता है।
(6) ज्ञान-दर्शन, सहज आनंद, सत्य (पूर्ण वीतरागता) और वीर्य-यह आत्मा का शुद्ध स्वरूप है।
(7) परमाणु स्कंधों के द्वारा आत्मा का स्वरूप आवृत्त और विकृत होता है।
(8) स्वभाव की दृष्टि से सब आत्माएँ समान होती हैं, फिर भी परमाणु समुदायों के योग और वियोग के कारण वे दो प्रकार की होती हैं।
(9) परमाणु-समुदायों के योग से युक्त आत्मा बद्ध और उनके योग से वियुक्त आत्मा मुक्त कहलाती है।
(10) स्वरूप की उपलब्धि होती है, आवृत्त-स्वरूप अनावृत्त होता है, वही मुक्ति है।

अतीन्द्रिय ज्ञान और आत्मा

चेतना के तीन स्तर हैं-ऐन्द्रियिक, मानसिक और अतीन्द्रिय। चेतना का आवरण सघन होता है तब उसके ऐन्द्रियिक स्तर का विकास होता है। उसका आवरण पतला हो जाता है तब मानसिक स्तर का विकास होता है। जब वह बहुत क्षीण या पूर्णतः विलीन हो जाता है तब अतीन्द्रिय स्तर का विकास होता है। हम लोग इंद्रिय और मन के स्तर पर ज्ञान कर रहे हैं इसलिए अतीन्द्रिय ज्ञान की कल्पना नहीं कर पाते। इंद्रिय स्तर पर काम करने वाला क्या मानसिक स्तर की कल्पना कर सकता है? हम उत्तरवर्ती विकास की कल्पना नहीं कर सकते, उसका हेतु हमारी अपूर्णता है। हम अपनी पूर्णता का अनुभव कर अतीन्द्रिय स्तर की परिकल्पना से दूर नहीं रह सकते।
चेतना के पहले दो स्तर परोक्ष होते हैं। उसका तीसरा स्तर प्रत्यक्ष होता है। ज्ञान वस्तुतः परोक्ष नहीं होता किंतु उसकी पद्धति परोक्ष भी बन जाती है। ऐंद्रियक स्तर पर हम ज्ञेय को इंद्रियों के माध्यम से जानते हैं, साक्षात् नहीं जानते इसलिए हमारा वह ज्ञान परोक्ष होता है। कल्पना, चिंतन और मनन में कल्पनीय, चिंतनीय और मननीय वस्तु का साक्षात् संपर्क नहीं होता इसलिए मानसिक स्तर का ज्ञान भी परोक्ष होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान वह होता है, जहाँ ज्ञाता ज्ञेय को साक्षात् जानता है-शारीरिक या पौद्गलिक उपकरणों की सहायता लिए बिना जानता है। साधना का उद्देश्य है-परोक्षानुभूति की भूमिका को पार कर प्रत्यक्षानुभूति की भूमिका में प्रवेश करना, चेतना के आवरण को विलीन कर उसे अनावृत्त करना। चेतना का अनावरण होने पर हमारी साधना सफल हो जाती है।
परोक्ष और प्रत्यक्ष ज्ञान की भेदरेखा तीन बिंदुओं से बनी है। परोक्ष ज्ञान का विषय है-स्थूल, अव्यवहित और निकटवर्ती वस्तु। प्रत्यक्ष का विषय है-स्थूल या सूक्ष्म, व्यवहित या अव्यवहित, दूर या निकटवर्ती वस्तु। परोक्ष ज्ञान मनन और शास्त्र (शब्दज्ञान) के माध्यम से होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के तीन प्रकार हैं-अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान। चेतना की पूर्ण अनावृत्त दशा का नाम केवलज्ञान है। उसके द्वारा भौतिक और अभौतिक, गूर्त और अमूर्त सभी प्रकार के ज्ञेय जाने जाते हैं। अवधि आत्मर मनःपर्याय के द्वारा केवल भौतिक और मूर्त द्रव्य ही जाने जाते हैं। अवधिज्ञान से हम भींत से परे की वस्तु जान सकते हैं। किंतु अभौतिक ज्ञेय को नहीं जान सकते। मनःपर्याय ज्ञान के द्वारा हम चिंतन मे प्रयुक्त पौद्गलिक तत्त्वों को जान सकते हैं किंतु चेतना की अभौतिक सत्ता को नहीं जान सकते।
साधना के द्वारा हम स्थूल जगत् से संबंध विच्छिन्न कर सूक्ष्म जगत् से संपर्क स्थापित कर सकते हैं। जैसे-जैसे हमारे मन का विक्षेप, विकार और आवरण विलीन होता है, वैसे-वैसे सूक्ष्म पर आया हुआ आवरण दूर हटता चला जाता है। हमारी निरावरण अवस्था ही आत्मा का स्वरूप है। यही हमारी मुक्ति है। आत्मा और मुक्ति का स्वरूप एक है। जो आत्मा है वही मुक्ति है और जो अनात्मा है वही बंधन है। हम जब तक बंधन की स्थिति में रहते हैं, तब तक हमें अपना स्वरूप उपलब्ध नहीं होता। जैसे-जैसे हम बंधन को काटते चले जाते हैं, वैसे-वैसे ही हमारी मुक्ति होती जाती है। मुक्ति केवल अंतिम क्षण में ही नहीं होती किंतु उसका एक क्रम होता है। उसके अनुसार साधना के हर क्षण में मुक्ति होती है। साधना जैसे ही चरम बिंदु पर पहुँचती है, वैसे ही मुक्ति का परिपूर्ण रूप प्रकट हो जाता है।

(क्रमशः)