संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(13) न वामाद् हनुतस्तावत्, संचारयेच्च दक्षिणम्।
दक्षिणाच्च तथा वामं, आहरन् मुनिरात्मवित्।।
आत्मविद् मुनि भोजन करते समय स्वाद लेने के लिए दाएँ जबड़े से बायीं ओर तथा बाएँ जबड़े से दायीं ओर भोजन का संचार न करे।
(14) स्वादाय विविधान् योगान्, न कुर्यात् खाद्यवस्तुषु।
संयोजनां परित्यज्य, मुनिराहारमाचरेत्।।
मुनि स्वाद के लिए खाद्य-पदार्थों में विविध प्रकार के संयोग न मिलाए। इस संयोजना दोष का वर्जन कर वह भोजन करे।
स्वाद-विजय परम-विजय है। जो व्यक्ति रसनेन्द्रिय पर विजय पा लेता है, उसके लिए अन्यान्य इंद्रियों पर विजय पाना इतना कठिन नहीं होता।
भूख को शांत करने के लिए व्यक्ति खाता है। भोज्य पदार्थ स्वादिष्ट और अस्वादिष्ट भी होते हैं। जीभ का काम है-चखना। पदार्थ का स्पर्श पाकर जीभ जान लेती है कि यह स्वादिष्ट है या नहीं। इसे रोका नहीं जा सकता। प्रत्येक इंद्रिय अपनी-अपनी मर्यादा में विषय का ज्ञान कराती है। उसे रोका नहीं जा सकता। किंतु इंद्रिय-विषयों के प्रति होने वाली आसक्ति से बचा जा सकता है। यही साधना है।
इसी प्रकार स्वाद में आसक्त होने से बचना स्वाद-विजय है।
इसके दो मुख्य उपाय हैं-
(1) भोजन करने के लक्ष्य का स्पष्ट अनुचिंतन।
(2) समता का अभ्यास।
ये दोनों उपाय साधक को आत्माभिमुख करते हैं। जब उसे आत्मरस का स्वाद आने लगता है तब पौद्गलिक रस से उसका मन हट जाता है।
प्रस्तुत श्लोकों में स्वाद-विजय के तीन उपाय निर्दिष्ट हैं-
(1) आत्मरसानुभूति की ओर प्रवृत्ति।
(2) एक जबड़े से दूसरे जबड़े की ओर असंचरण।
(3) स्वाद के लिए खाद्य-पदार्थों के मिश्रण का वर्जन।
गीता में भी कहा है-
विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तते।।
(क्रमशः)