उपासना
(भाग - एक)
कालूगणी के युग में जहाँ श्रमण-श्रमणी संपदा का अभूतपूर्व विस्तार हुआ, वहाँ तेरापंथ को विकास की विविध दिशाएँ मिलीं। संघ का पुस्तक भंडार काफी समृद्ध हुआ। कला के प्रति कालूगणी का विशेष आकर्षण था। इसी आकर्षण ने साधु-साध्वियों के हर कार्य में, भले ही वह सिलाई का हो या रंगाई का, कला को प्रतिष्ठित किया। सुंदर एवं सूक्ष्म लिपि का विकास भी पूज्य कालूगणी के युग की देन है। कालूगणी के युग में तेरापंथ का क्षेत्र-विस्तार भी बहुत हुआ। मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र आदि सुदूर प्रांतों में सर्वप्रथम उन्होंने ही साधुओं को भेजा।
विद्या के क्षेत्र में और विशेषकर संस्कृत विद्या के क्षेत्र में कालूगणी के समय में उल्लेखनीय प्रगति हुई। उन्होंने न केवल संघ में संस्कृत पाठकों को ही तैयार किया अपितु ‘श्री भिक्षु शब्दानुशासनम्’ के रूप में संस्कृत व्याकरण को तैयार करवाकर संस्कृत विकास का एक द्वार खोल दिया। कालूगणी के शासनकाल में चार सौ दस दीक्षाएँ हुईं। उनमें एक सौ पचपन साधु और दो सौ पचपन साध्वियाँ थीं। जब वे दिवंगत हुए तब एक सौ उनचालीस साधु और तीन सौ तेंतीस साध्वियाँ संघ में विद्यमान थीं।
कालूगणी का स्वर्गवास वि0सं0 1993 भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को गंगापुर (राजस्थान) में हुआ। वे अपने स्वर्गवास के तीन दिन पूर्व ही बाईस वर्षीय युवा मुनि तुलसी के सबल कंधों पर विशाल संघ का दायित्व सौंपकर निश्चिंत बन गए थे। कालूगणी के जीवन की अनेक उपलब्धियों में इसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है कि वे अपने पीछे संघ को आचार्य तुलसी के रूप में एक महान् सक्षम और सबल नेतृत्व सौंप गए।
आचार्य तुलसी
युगप्रधान गुरुदेव तुलसी इस युग के क्रांतिकारी आचार्यों में एक थे। जैनधर्म को जनधर्म के रूप में व्यापकता प्रदान करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वे तेरापंथ धर्मसंघ के नौवें आचार्य थे। गुरुदेव तुलसी का जन्म वि0सं0 1971 कार्तिक शुक्ला द्वितीया को लाडनूं (राजस्थान) में हुआ। उनके पिता का नाम श्री झूमरमलजी खटेड़ एवं माता का नाम वदनांजी था। नौ भाई-बहनों में उनका आठवाँ स्थान था। प्रारंभ से ही वे एक होनहार व्यक्तित्व के धनी थे। वि0सं0 1982 पौष कृष्णा पंचमी को लाडनूं में ग्यारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने पूज्य कालूगणी के करकमलों से दीक्षा ग्रहण की। ग्यारह वर्ष तक गुरु की पावन सन्निधि में रहकर मुनि तुलसी ने शिक्षा एवं साधना की दृष्टि से अपने व्यक्तित्व को बहुमुखी विकास दिया। हिंदी, संस्कृत, प्राकृत भाषाओं का तथा व्याकरण, कोश, साहित्य, दर्शन एवं जैनागमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। लगभग बीस हजार श्लोक परिमाण रचनाओं को कंठस्थ कर लेना उनकी प्रखर प्रतिभा का करिश्मा था।
संयम जीवन की निर्मल साधना, विवेक-सौष्ठव, आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन, बहुश्रुतता, सहनशीलता, गंभीरता, धीरता, अप्रमत्तता, अनुशासननिष्ठा आदि विविध विशेषताओं से प्रभावित होकर अष्टमाचार्य पूज्य कालूगणी ने वि0सं0 1993 भाद्रपद शुक्ला तृतीया को गंगापुर में उन्हें अपने उत्तराधिकारी के रूप में मनोनीत किया।युवाचार्य पद पर वे मात्र चार दिन रहे। भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को पूज्य कालूगणी दिवंगत हो गए। बाईस वर्षीय मुनि तुलसी के युवा कंधों पर विशाल धर्मसंघ का दायित्व आ गया। वे भाद्रपद शुक्ला नवमी को आचार्य पद पर आसीन हुए। उस समय तेरापंथ संघ में एक सौ उनचालीस साधु व तीन सौ तेंतीस साध्वियाँ थीं। आचार्य पद का दायित्व संभालने के बाद आचार्य तुलसी ने ग्यारह वर्ष का समय धर्मसंघ के आंतरिक निर्माण में लगाया। निर्माण की इस शंृखला में उन्होंने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य किया साध्वी समाज में शिक्षा के प्रसार का। आज साध्वी समाज में शिक्षा की दृष्टि से बहुमुखी विकास हुआ है। इसके एकमात्र श्रेयोभागी थे-गुरुदेव तुलसी।
(क्रमशः)