उपासना
(भाग - एक)
ु आचार्य महाश्रमण ु
आचार्य भद्रबाहु (प्रथम)
आचार्य भद्रबाहु की साधना का काल संपन्नप्राय: था। उस समय एक दिन आचार्य भद्रबाहु ने प्रथम बार स्थूलभद्र से कहा‘विनेय! तुम्हें माधुकरी प्रवृत्ति एवं स्वाध्याय योग में किसी प्रकार का क्लेश तो नहीं होता?’
आर्य स्थूलभद्र विनम्र होकर बोले‘भगवन्! मुझे अपनी प्रवृत्ति में कोई कठिनाई नहीं है। मैं पूर्ण स्वस्थमना अध्ययन में रत हूँ। आपसे मैं एक प्रश्न पूछता हूँमैंने आठ वर्षों में कितना अध्ययन किया और कितना अवशिष्ट रहा है?’
प्रश्न के समाधान में भद्रबाहु ने कहा‘मुने! सर्षप मात्र ग्रहण किया है, मेरु जितना ज्ञान अवशिष्ट है। दृष्टिवाद के अगाध ज्ञानसागर से अभी तक बिंदु मात्र ले पाए हो।’
आर्य स्थूलभद्र ने निवेदन किया‘प्रभो! मैं अगाध ज्ञान की सूचना पाकर हतोत्साहित नहीं हूँ, पर मुझे वाचना अल्प मात्र में मिल रही है। आपके जीवन का संध्याकाल है। ऐसी स्थिति में इतने कम समय में मेरु जितना ज्ञान कैसे ग्रहण कर पाऊँगा?’
बुद्धिमान आर्य स्थूलभद्र की चिंता का निमित्त जान आर्य भद्रबाहु ने आश्वासन दिया‘शिष्य! चिंता मत करो, मेरा साधनाकाल संपन्नप्राय: है। उसके बाद मैं तुम्हें रात-दिन यथेष्ट समय वाचना के लिए दूँगा।’
आर्य स्थूलभद्र का अध्ययन क्रम चलता रहा। भद्रबाहु की महाप्राण ध्यान की साधना पूर्ण होने तक उन्होंने दो वस्तु कम दशपूर्व की वाचना ग्रहण कर ली थी। ध्यान-साधना का काल संपन्न होने पर आर्य भद्रबाहु पाटलिपुत्र लौटे। यक्षा आदि साध्वियाँ आर्य भद्रबाहु के वंदनार्थ आईं। आर्य स्थूलभद्र उस समय एकांत में ध्यानरत थे। परमवंदनीय महाभाग आचार्य भद्रबाहु के पास अपने ज्येष्ठ भ्राता मुनि आर्य स्थूलभद्र को न देख साध्वियों ने उनसे पूछा‘गुरुदेव! हमारे ज्येष्ठ भ्राता मुनि आर्य स्थूलभद्र कहाँ हैं?’ भद्रबाहु ने स्थान विशेष का निर्देश दिया। यक्षा आदि साध्वियाँ वहाँ पहुँची। बहनों का आगमन जान आर्य स्थूलभद्र कुतूहलवश अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए सिंह का रूप बनाकर बैठ गए। साध्वियाँ शेर को देखकर डर गईं। वे आचार्य भद्रबाहु के पास तीव्र गति से चलकर पहुँची और प्रकंपित स्वर में बोली‘गुरुदेव! आपने जिस स्थान का संकेत दिया था, वहाँ केसरीसिंह बैठा है। लगता है, हमारे भाई का उसने भक्षण कर लिया है।’ भद्रबाहु ने समग्र स्थिति को ज्ञानोपयोग से जाना और कहा
‘वन्दध्वं तत्र व: सोऽस्ति ज्येष्ठार्यो न तु केसरी।’
‘वह केसरी नहीं तुम्हारा भाई है। पुन: वहीं जाओ। तुम्हें तुम्हारा भाई मिलेगा। उसे वंदन करो।’
आचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्देश प्राप्त कर बहनें पुन: उसी स्थान पर गईं। ज्येष्ठ बंधु स्थूलभद्र को देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई। सबने मुकुलित पाणि मस्तक झुकाकर वंदन किया और बोली‘भ्रात! हम पहले भी यहाँ आई थीं, परंतु आप नहीं थे। यहाँ पर केसरीसिंह बैठा था।’ आर्य स्थूलभद्र ने उत्तर दिया‘साध्वियो! मैंने ही उस समय सिंह का रूप धारण किया था।’
आर्य स्थूलभद्र एवं यक्षा, यक्षदत्ता आदि साध्वियों का कुछ समय तक वार्तालाप चला। तदनंतर यक्षा आदि साध्वियाँ अपने स्थान पर लौट आईं। आर्य स्थूलभद्र वाचना ग्रहण के लिए आचार्य भद्रबाहु के चरणों में उपस्थित हुए। अपने सम्मुख आर्य स्थूलभद्र को देखकर आचार्य भद्रबाहु ने उनसे कहा‘वत्स! ज्ञान का अहं विकास में बाधक है। तुमने शक्ति का प्रदर्शन कर अपने को ज्ञान के लिए अपात्र सिद्ध कर दिया है। अग्रिम वाचना के लिए अब तुम योग्य नहीं रहे हो।’ आर्य भद्रबाहु द्वारा वाचना न मिलने पर उन्हें अपनी भूल समझ में आई। प्रमाद वृत्ति का गहरा अनुताप हुआ। भद्रबाहु के चरणों में गिरकर उन्होंने क्षमायाचना की और कहा‘मेरी पहली भूल है। इस प्रकार की भूल का पुनरावर्तन नहीं होगा। आप मेरी भूल को क्षमा कर मुझे वाचना प्रदान करें।’
पर आचार्य भद्रबाहु ने उनकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।