धर्म का काम है आंतरिक व्यक्तित्व का विकास
चंडीगढ़।
धर्म का काम है आंतरिक व्यक्तित्व का विकास। इसके लिए मस्तिष्क और हृदय को सुंदर बनाना अपेक्षित है, जो सद्विचार और सदाचार के विकास से ही संभव है। सभी अपने संस्कार विकसित करें, दोष-दुर्गुणों को कम करें और सद्गुणों को अपनाना सीखें। सत्य, दया, क्षमा, परोपकार और सत्संगति रूपी गुण ऐसे साधन हैं, जिनसे हमारे संस्कार विकसित होते हैं। यह विचार मुनि विनय कुमार जी ‘आलोक’ ने अणुव्रत भवन, तुलसी सभागार में व्यक्त किए। मुनिश्री ने आगे कहा कि जहाँ चरित्र नहीं है वहाँ कुछ भी टिक पाना मुश्किल है। जीवन का सबसे बड़ा पाठ चरित्र है। जीवन यानी संघर्ष, यानी ताकत, यानी मनोबल। मनोबल से ही व्यक्ति स्वयं को बनाए रख सकता है।
मुनिश्री ने अंत में कहा कि चरित्र यानी हमारा आंतरिक व्यक्तित्व-एक पवित्र आभामंडल है। यह सही है कि शक्ति और सौंदर्य का समुचित योग ही हमारा व्यक्तित्व है, पर शक्ति और सौंदर्य आंतरिक भी होते हैं, बाह्य भी होते हैं। चरित्र निर्माण से ही जहाँ आपके व्यक्तित्व का निर्माण होता है, वहीं अच्छे-अनुकरणीय चरित्र वाले लोगों से ही देश का निर्माण होता है।