मनोनुशासनम्
पहला प्रकरण
आत्मा एक द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य अनंत धर्मात्मक होता है। आत्मा के स्वरूप की व्याख्या उन धर्मों के आधार पर की जा सकती है जो धर्म परमाणु समुदाय से प्रभावित होते हैं। कुछ परमाणु आत्मा के ज्ञान, दर्शन को आवृत्त करते हैं। कुछ परमाणु आत्मा में विकार उत्पन्न करते हैं। कुछ परमाणु आत्मा के वीर्य का प्रतिघात या अवरोध करते हैं। कुछ परमाणु पारमाणविक संयोग या प्राप्ति के हेतु बनते हैं। इस प्रकार आवरण, विकार, प्रतिघात और प्राप्ति-इन चार रूपों में परमाणु आत्मा को प्रभावित करते हैं। यह प्रभावित अवस्था ही बंधन है। इस प्रभाव से छूटना ही मुक्ति है और वही आत्मा का स्वरूप है। निरावरण दशा आत्मा का स्वरूप है। इसका अर्थ है ज्ञान और दर्शन का पूर्णरूपेण प्रकट हो जाना। वीतरागता आत्मा का स्वरूप है। इसका अर्थ है विकार से पूर्णरूपेण मुक्त हो जाना। शक्ति आत्मा का स्वरूप है। परमाणुओं से असंबद्ध होना आत्मा का स्वरूप है। उस स्वरूप की उपलब्धि ही साधना का प्रयोजन है। बंधन-मुक्ति से बढ़कर साधना का और प्रयोजन हो ही क्या सकता है?
(11) मनो-वाक्-काय-आनापान-इंद्रिय-आहाराणां निरोधो योगः।।
(12) संवरो गुप्तिर्निरोधो निवृत्त इति पर्यायाः।।
(13) शोधनं च।।
(14) समितिः सत्यप्रवृत्तिर्विशुद्धि इति पर्यायाः।।
(15) पूर्वं शोधनं ततो निरोधः।।
(16) हित-मित-सात्त्विकाहरणं आहारशुद्धिः।।
(17) स्वविषयान् प्रति सम्यग्योग इंद्रियशुद्धिः।।
(18) प्रतिसंलीनता च।।
(19) प्राणायाम-समदीर्घश्वास-कायोत्सर्गै आनापनशुद्धिः।।
(20) कायोत्सर्गाद्यासन-बंध-व्यायाम-प्राणायामैः कायशुद्धिः।।
(21) निस्संगत्वेन च।।
(22) प्रलम्बनादाीयासेन वाक्शुद्धिः।।
(23) सत्यपरत्वेन च।।
(24) दृढ़संकल्पैकाग्रसन्निवेशनाभ्यां मनःशुद्धिः।।
(11) बंधन-मुक्ति के लिए मन, वाणी, काय, आनापान, इंद्रिय और आहार के निरोध को योग कहा जाता है।
(12) संवर, गुप्ति, निरोध और निवृत्ति-ये उनके पर्यायवाची नाम हैं।
(13) मन, वाणी, काय, आनापान, इंद्रिय और आहार की शुद्धि को भी योग कहा जाता है।
(14) समिति, सत्प्रवृत्ति और विशुद्धि-ये उनके पर्यायवाची नाम हैं।
(15) पहले मन आदि का शोधन होता है, फिर निरोध।
(16) हितकर भोजन करना, मितभोजन करना-ठूँस-ठूँसकर न खाना, मित द्रव्य खाना-बहुत वस्तुएँ एक साथ न खाना, मित समय में खाना-समूचे दिन खाते ही न रहना, मिर्च-मसाले आदि उत्तेजक वस्तुएँ न खाना-ये आहारशुद्धि के उपाय हैं।
(17) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत का अपने-अपने विषयों (स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द) के प्रति जो सम्यग् योग होता है-निर्विकार और शांतप्रवृत्ति होती है, वह इंद्रिय-शुद्धि का उपाय है।
(18) प्रतिसंलीनता भी इंद्रिय-शुद्धि का उपाय है।
(19) प्राणायाम, समतालश्वास, दीर्घश्वास और कायोत्सर्ग के द्वारा श्वासोच्छ्वास की शुद्धि होती है।
(20) कायोत्सर्ग आदि आसनों, मूलबंध, उड्डियानबंध, जालंधर-बंध, व्यायाम और प्राणायाम के द्वारा काय की शुद्धि होती है।
(21) निर्लेपता के द्वारा भी काय की शुद्धि होती है।
(22) ¬, अर्हं आदि शब्दों के लंबे उच्चारण से वाणी की शुद्धि होती है।
(23) दृढ़ संकल्प करने व एक लक्ष्य पर स्थिर होने से मन की शुद्धि होती है।
योग
प्रश्न: क्या जैन साहित्य में ‘योग’ शब्द का व्यवहार हुआ है?
उत्तर: जैन साहित्य में ‘योग’ शब्द का व्यवहार अनेक रूपों में हुआ है-अध्यात्मयोग, भावनायोग, संवरयोग, ध्यानयोग आदि। सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन सूत्र में ‘योग’ शब्द का व्यवहार हुआ है। जैन तत्त्वविद्या में मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति को भी योग कहा गया है। उसका प्रयोग बहुत प्रचलित है, इसलिए साधना के अर्थ में संवर या प्रतिमा का प्रयोग अधिक प्रचलित है।
जैन तत्त्व-विद्या के अनुसार हमारे जीवन के छह शक्ति-òोत (पर्याप्तियाँ) और दस शक्ति-केंद्र (प्राण) हैं।
(1) आहार पर्याप्ति, (2) शरीर पर्याप्ति, (3) इंद्रिय पर्याप्ति, (4) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, (5) भाषा पर्याप्ति, (6) मनःपर्याप्ति।
(क्रमशः)