मनोनुशासनम्
आचार्य तुलसी
पहला प्रकरण
दस शक्ति केंद्र-
(1) श्रोत्रेन्द्रिय प्राण, (2) चक्षुःइंद्रिय प्राण, (3) घ्राणेन्द्रिय प्राण, (4) रसनेन्द्रिय प्राण, (5) स्पर्शनेन्द्रिय प्राण, (6) मनोबल, (7) वचन-बल, (8) काय-बल, (9) श्वासोच्छ्वास प्राण, (10) आयुष्य प्राण।
इनमें परस्पर कार्य-कारण का भाव प्रतीत होता है। शक्ति-òोत कारण हैं और शक्ति-केंद्र उनके कार्य हैं। संख्या-विस्तार को संक्षेप में लाने पर दोनों की संख्या समान हो जाती है।
शक्ति-òोत शक्ति-केंद्र
आहर पर्याप्ति आयुष्य प्राण
शरीर पर्याप्ति कायबल
इंद्रिय पर्याप्ति इंद्रिय प्राण
श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास प्राण
भाषा पर्याप्ति वचनबल
मनःपर्याप्ति मनोबल
ये शक्ति-òोत और शक्ति-केंद्र न तो चेतन की विशुद्ध अवस्था में होते हैं और न अचेतन में होते हैं, ये चेतन और अचेतन के संयोग में उत्पन्न होते हैं। हम जितने प्राणी हैं, वे सब चेतन और अचेतन (पुद्गल) के संयोग की अवस्था में हैं। हमारे विशुद्ध चैतन्य का उदय नहीं हुआ है, इसलिए हम केवल चैतन्य की भूमिका में अवस्थित नहीं है। हम अनुभव-शक्ति व ज्ञान-शक्ति से संपन्न हैं, इसलिए हम केवलअचेतन की भूमिका में भी नहीं हैं। हम चैतन्य और अचैतन्य की संयुक्त भूमिका में हैं।
ये शक्ति-òोत और शक्ति-केंद्र ही जीव और निर्जीव तत्त्व के बीच व्यावर्तक (भेद डालने वाले) हैं। जिनमें आहार करने, शरीर-रचना, इंद्रिय-रचना व श्वास लेने की शक्ति है, वे जीव हैं और जिनमें ये शक्तियाँ नहीं हैं, वे निर्जीव हैं।
भाषा-शक्ति व चिंतन-शक्ति जीव के लक्षण नहीं हैं किंतु वे विकास के अग्रिम सोपान हैं।
ये शक्ति-òोत जीवन के आरंभ-काल में ही निष्पन्न हो जाते हैं। इनकी क्रियाशीलता ही प्राणी का जीवन है। प्रश्न होता है कि जीवन का साध्य क्या है? जीवन का कोई एक निश्चित साध्य है, ऐसा प्रतीत नहीं होता। जीवन जब प्रबुद्ध होता है तब उसका साध्य होता है मुक्ति। मुक्ति के दो साधन हैं-शोधन और निरोध। विस्तार में इनके बारह प्रकार हो जाते हैं-
(1) आहार शुद्धि, (2) आहार निरोध, (3) शरीर शुद्धि, (4) शरीर निरोध, (5) इंद्रिय शुद्धि, (6) इंद्रिय निरोध, (7) श्वासोच्छ्वास शुद्धि, (8) श्वासोच्छ्वास निरोध, (9) वाक् शुद्धि, (10) वाक् निरोध, (11) मन शुद्धि, (12) मन निरोध।
प्रथम भूमिका शोधन की है। शुद्धि जब अपने चरम बिंदु पर पहुँच जाती है तब निरोध की भूमिका प्रारंभ हो जाती है।
योग का विशिष्ट अंग निरोध है। जब तक मन आदि का निरोध नहीं होता, तब तक शोधन का क्रम विकासशील नहीं बनता। निरोध की अपेक्षा शोधन सरल है, इसलिए वह सहजतया हो जाता है किंतु उसकी पूर्णता निरोध से जुड़ने पर ही होती है। मानवीय चर्या के तीन अंग हैं-असत् प्रवृत्ति, सत् प्रवृत्ति और निवृत्ति। साधना का क्रम-प्राप्त मार्ग यह है कि हम पहले असत् प्रवृत्ति से हटकर सत्प्रवृत्ति की भूमिका में आएँ और फिर निवृत्ति की भूमिका को प्राप्त करें।
प्रश्न-क्या इंद्रिय की शक्ति का विकास किया जा सकता है?
उत्तर-इंद्रियों की शक्ति का विकास किया जा सकता है। यद्यपि तर्कशास्त्री मानते हैं कि इंद्रिय का अपने विषय में ही विकास हो सकता है, जैसे-आँख रूप को देखने में बहुत पटु बन सकती है किंतु वह अपने विषय का अतिक्रमण नहीं कर सकती अर्थात् शब्द को नहीं सुन सकती। योग के क्षेत्र में यह तर्कशास्त्रीय नियम सम्मत नहीं है। उसके अनुसार इंद्रियों का विकास अपने विषय की सीमा में तथा उसके आगे भी किया जा सकता है। इंद्रियों की इस विकसित शक्ति को संभिन्नòोतोपलब्धि कहा जाता है। जो व्यक्ति इस लब्धि (योगज विभूति) को प्राप्त कर लेता है, वह किसी एक इंद्रिय से पाँचों इंद्रियों का काम ले सकता है। उदाहरण के रूप में वह स्पर्शन इंद्रिय से सुन सकता है, देख सकता है, सूँघ सकता है और चख सकता है।
आहार-शुद्धि उपाय
(1) हिताहार। (2) मिताहार। (3) सात्त्विकाहार।
हिताहार-जो आहार सम धातुओं को प्रकृति में स्थापित करता है और विषम धातुओं को सम करता है, उसका नाम हिताहार है। प्रकृति के अनुकूल भोजन करना, विरुद्ध वस्तुएँ न खाना, विकृत वस्तुएँ न खाना आदि-आदि।
(क्रमशः)