उपासना

स्वाध्याय

उपासना

(भाग - एक)

आचार्य तुलसी

पारमार्थिक शिक्षण संस्था, जैन विश्व भारती एवं जैन विश्व भारती संस्थान की आध्यात्मिक प्रवृत्तियों का विकास गुरुदेव तुलसी युग की विशिष्ट उपलब्धि है। ये तीनों संस्थान आज भी विद्वानों, शिक्षाविदों, दार्शनिकों एवं योगसाधकों की जिज्ञासा के केंद्र बने हुए हैं। समण श्रेणी की स्थापना गुरुदेव तुलसी का एक ऐतिहासिक, दूरदर्शितापूर्ण और साहस भरा कदम था। इसकी स्थापना वि0सं0 2037 कार्तिक शुक्ला द्वितीया को लाडनूं में हुई। इस श्रेणी के माध्यम से उन्होंने न केवल मध्यम प्रतिपदा के रूप में आत्मसंयम की दिशाएँ उद्घाटित की, अपितु देश-विदेशों में जैन धर्म को उजागर किया।
गुरुदेव तुलसी के जीवन का हर कोण उपलब्धियों से भरा था। उनके कार्यòोत विविध दिशागामी थे। वे एक कुशल अनुशास्ता, समाज-सुधारक, नारी-उद्धारक, धर्मक्रांति के सूत्रधार, मानवता के मसीहा, जैन दर्शन के मर्मज्ञ एवं महान् विचारक, चिंतक व साहित्यकार थे। उनके साहित्य की भाषा हिंदी, राजस्थानी और संस्कृत रही। गद्य और पद्य की विधाओं में उनके द्वारा लिखित पचासों साहित्यिक कृतियों से न केवल साहित्य ही समृद्ध हुआ अपितु दर्शन, ज्ञान-विज्ञान का क्षेत्र कृतकृत्य हुआ। गुरुदेव तुलसी एक महान् आगम-पुरुष थे। उनके वाचना-प्रमुखत्व में उनके सफल उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने संपादन कौशल से जैन वाङ्मय को आधुनिक भाषा में सटिप्पणी प्रस्तुति देने का गुरुत्तर कार्य किया। अनेक आगम प्रकाशित होकर विद्वानों के हाथों में पहुँचे। न केवल भारतीय विद्वानों अपितु पाश्चात्य विद्वानों ने इस आगम कार्य को जैन दर्शन एवं जैन शासन की ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा माना। यह महत्त्वपूर्ण कार्य आज भी गतिशील है।
गुरुदेव तुलसी ने तेरापंथ धर्मसंघ का सर्वतोमुखी विकास करने के साथ-साथ मानवता की सेवा और मानवीय मूल्यों की प्रस्थापना को अपना एक प्रमुख कार्य माना। उनकी मानवीय सेवाओं के मूल्यांकन स्वरूप युगप्रधान के रूप में उनका अभिनंदन, यूनेस्को के डायरेक्टर लूथरइवेन्स, अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिज्ञ वेकन आदि विदेशी व्यक्तियों द्वारा उनकी नीति का समर्थन, जर्मन विद्वान होमियोराउ द्वारा विदेश आने का निमंत्रण, राष्ट्रीय एकता परिषद् में सदस्य के रूप में मनोनयन, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर द्वारा भारत ज्योति अलंकरण, केंद्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान सारनाथ (वाराणसी) द्वारा वाक्पति (डीलिट्) मानद अलंकरण, राष्ट्रीय एकता के विकास में उल्लेखनीय भूमिका के लिए सन् 1992 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, महाराणा केवाड़ फाउंडेशन द्वारा हकीम खाँ सूर सममान आदि-आदि तेरापंथ धर्मसंघ के इतिहास के ऐसे स्वर्णिम पृष्ठ हैं जो काल के भाल पर सदा अंकित रहेंगे।
गुरुदेव तुलसी के जीवन का एक दुर्लभ दस्तावेज हैµ18 फरवरी, 1994 सुजानगढ़ में होने वाले मर्यादा महोतसव का विराट आयोजन। उस दिन उन्होंने अपने ऊर्जस्वल महिमामंडित आचार्य पद का विसर्जन कर अपनी सक्रिय और समर्थ उपस्थिति में युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। नाना उपाधियों, अलंकरणों और संबोधनों से घिरा वह विराट व्यक्तित्व सचमुच निरुपाधि बनकर मानवता की सेवा का अटल प्रण लिए उन जननेताओं और धर्मनेताओं के सामने चुनौती बन गया, जो सत्ता, पद और प्रतिष्ठा के पीछे पागल बन रहे थे।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी के शब्दों में तुलसी और तेरापंथ पर्यायवाची नाम हैं। गुरुदेव तुलसी के शासनकाल को तेरापंथ का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। उनकी शासना में इस संघ ने आकाशमापी ऊँचाइयाँ प्राप्त की। उनका संपूर्ण जीवन धर्मसंघ/जैन शासन एवं सकल मानव जाति के उत्थान में समर्पित रहा। उनके जीवन की हर साँस स्वार्थ चेतना से मुक्त परार्थ एवं परमार्थ चेतना की सुरभि विकिरित करती रही। मानव जाति का इतिहास तुलसी के अवदानों का चिर ऋणी रहेगा।
गंगाशहर की धरा पर वह अध्यात्म का सूरज प्रकाश प्रसारित कर रहा था कि अचानक 23 जून, 1997 को काल के सघन मेघ ने उस सूर्य को आच्छन्न कर दिया। संपूर्ण मेदिनी उनके विरह में व्याकुल बन गई। उनकी अंतिम यात्रा में अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करने के लिए देश-विदेश से लाखों की संख्या में लोग उपस्थित हुए और अपने हृदयहार प्रिय गुरु को अंतिम विदा दी।

(क्रमशः)