संबोधि

स्वाध्याय

संबोधि

बंध-मोक्षवाद

मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(17) संयमासंयमाभ्यां तु, जीवनं द्विविधं भवेत्।
संयतं जीवनं श्रेयः, न श्रेयोऽसंयतं पुनः।।
भगवान ने कहा-जीवन दो प्रकार का होता है-संयत जीवन और असंयत जीवन। संयत जीवन श्रेय है, असंयत जीवन श्रेय नहीं है।

(18) सकामाकामभेदेन, मरणं द्विविधं स्मृतम्।
सकाममरणं श्रेयः, नाऽकाममरणं भवेत्।।
मृत्यु के दो प्रकार हैं-सकाम मृत्यु-आत्मविशुद्धि की भावना से युक्त और अकाम मृत्यु-आत्मविशुद्धि की भावना से रहित। सकाम मृत्यु श्रेय है। अकाम मृत्यु श्रेय नहीं है।
जीवन से मरना भला, जो मर जाने कोय।
मरना पहिले जो मरे, अजर-अमर सो होय।।
कबीर ने कहा है- मरना अच्छा है अगर किसी को मरने की कला आ गई हो तो। और मृत्यु की कला यही है कि मरने से भी पहिले व्यक्ति मृत्यु को देख ले। बस, मृत्यु खत्म हो गई। महर्षि रमण के संपूर्ण जीवन का क्रांति-सूत्र मृत्यु-दर्शन ही है। एक बार वे छोटी उम्र में मरणासन्न हो गए। बचने की आशा नहीं थी। लेट गए और देखने लगे। शरीर मृतवत्-निश्चेष्ट हो गया। हाथ-पैर उठाने पर भी हिलते-डुलते, उठते नहीं। शांत स्थिति में शरीर को देखते रहे। देखते-देखते यह देख लिया कि शरीर मर चुका है। किंतु देखने वाला (द्रष्टा) अब भी जीवित है। मौत व्यर्थ हो गई। अजर-अमर की अनुभूति हो गई।
यहाँ न जीवन का मूल्य है और न मृत्यु का। दोनों अनेकों बार हो चुके, किंतु मृत्यु का समुचित निरीक्षण नहीं किया, मृत्यु को जाना नहीं। जीवन का पता भी मृत्यु को जान लेने के बाद चलता है। सभी धर्म उस परम सत्य के साक्षात्कार की विधि हैं। वे मानव के मूल रूप की अभिव्यक्ति के आलंबन हैं। बुद्ध कहते हैं-‘जब तक तुम्हें ख्याल है कि तुम हो, तब तक तुम्हारा भय नहीं मिट सकता। यदि भय से मुक्त होना चाहते हो तो तुम पहले ही मान लो कि तुम हो ही नहीं। तुम इस तरह जीओ कि जैसे हो ही नहीं। जिस क्षण यह अनुभव हो जाएगा, भय नहीं रहेगा।“
महावीर ने इस अनुभूति के लिए कायोत्सर्ग प्रतिमा दी है। कायोत्सर्ग का अर्थ है-देह के प्रति जो अनुराग है, उससे निवृत्त होना। आचार्य कुंदकुद ने कहा है-काय आदि पर-द्रव्यों में स्थिरत्व की बुद्धि को छोड़कर जो निर्विकल्प रूप से आत्मा का ध्यान करता है वह कायोत्सर्ग में स्थित है। देह का बार-बार विसर्जन कर मृतवत् हो सत्य का साक्षात्कार करना ही कायोत्सर्ग प्रतिमा है। ‘स्यूयून’ साधक से किसी ने पूछा-ध्यान क्या है? स्यूयून ने कहा-”ध्यान मिटा देने में है, स्वयं को मिटा देने में है। यदि तुम भी मुर्दे की भाँति स्वयं को जीवित ही मिटा दो तो तुम ध्यान में हो।“ बनयान की कविता का पद है-
जीते जी मृतवत् हो जाओ,
पूर्णतया मृतवत् हो जाओ।
और तब जो जी में आए करो,
क्योंकि तब सब ठीक है।
जीवन और मृत्यु की श्रेष्ठता का परिमापक यंत्र संयम है। संयम का अर्थ है-आत्मकेन्द्रित होना, बाहरी वृत्तियों से सर्वथा उदासीन हो जाना। जिसे स्वयं के अतिरिक्त कहीं रस प्रतीत न होता हो, वह संयम का अधिकारी होता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु स्वयं की विस्मृति में कैसे होगी? जीवन और मृत्यु श्रेष्ठ नहीं है, श्रेष्ठ है-संयम, स्वयं में जीना, स्वयं की स्मृति में जीना।
(क्रमशः)