लोभ होता है पाप का बाप: आचार्यश्राी महाश्रामण

गुरुवाणी/ केन्द्र

लोभ होता है पाप का बाप: आचार्यश्राी महाश्रामण

समदड़ी, 29 दिसंबर, 2022
सिवांची-मालाणी का क्षेत्र समदड़ी। परम पावन प्रातः लगभग 14 किलोमीटर का विहार कर यहाँ पधारे। सिवांची- मालाणी वर्तमान में धर्मसंघ की दृष्टि से उर्वरक क्षेत्र है। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण जी ने मंगल प्रेरणा पाथेय प्रदान करते हुए फरमाया कि आदमी के भीतर अनेक वृत्तियाँ होती हैं। वीतराग या क्षीण मोह वीतराग बन जाने के बाद चेतना की अलग स्थिति होती है। वीतराग भी अनेक प्रकार के होते हैं। उपशांत मोह वीतराग अवस्था में मोह कुछ समय के लिए उपशांत होता है, पुनः उदय में आने वाला निश्चयरूपेण होता है। क्षीण मोहवीतराग प्राप्त होने के बाद मोह का भाव हो ही नहीं सकता। मोह का समूल नाश हो चुका होता है वहाँ दुःवृत्तियाँ नहीं हो सकती।
सामान्य आदमी में दुःवृत्तियाँ भी होती हैं और सुवृत्तियाँ भी। मोहनीय कर्म का उदय भाव और क्षयोपशम भाव भी होता है। अनेक वृत्तियों में एक वृत्ति है-लोभ की वृत्ति। परिग्रह की संज्ञा। लोभ मूल वृत्ति है। सबसे बाद में नष्ट होने वाली वृत्ति है। पाप का बाप एक संदर्भ में लोभ को कहा जा सकता है। आदमी हिंसा और झूठ में जा सकता है।
धार्मिक जगत में जहाँ अध्यात्म की बात है, वहाँ लोभ को प्रतनू-कृष करने का अभ्यास होना चाहिए। धर्म के दो रूप हैं-उपासनात्मक और सदाचारणात्मक। उपासनात्मक में तो सामायिक-भक्ति आदि कालिक धर्म हो जाते हैं। सदाचारणात्मक में झूठ नहीं बोलना, हिंसा, चोरी, नशा आदि नहीं करना आ जाता है। उपासनात्मक धर्म सदाचरणात्मक धर्म को पोषण देने वाला होता है। हमारे आचरण निर्मल हों।
एक प्रसंग से समझाया कि गृहस्थ व्यवहार में भी धर्म कर सकता है। कई जीवों का जो पापी है, उनका सोना अच्छा है। धर्मी का जागना अच्छा है। राजनीति एक महत्त्वपूर्ण सेवा है, उसमें धर्म-नीति भी रहे। अर्थ और काम पर संयम का अंकुश रहे वरना अर्थ-अनर्थ बन सकता है। अणुव्रत की आत्मा संयम है। लोभ पर धर्म का अंकुश रहे। इच्छाओं की सीमा हो। गृहस्थ में संतोष की भावना पुष्ट रहे। प्रेक्षाध्यान का प्रयोग समता में रहने की प्रेरणा देता है। संगठन में भी अशुद्धता न हो। लोभ को प्रतनू कर देने से अनेक समस्याओं को पैदा होने का मौका नहीं मिलता है। धर्म का क्षेत्र जीवन के लिए भी आवश्यक है। धर्म कर्म के साथ जुड़ जाए। आज समदड़ी आना हुआ है। पूर्व में भी आना हुआ था। यहाँ से अनेक चारित्रात्माएँ समणियाँ हैं। सब धर्म का कार्य करते रहें। धर्मसंघ की सेवा करते रहें।
साध्वीप्रमुखाश्री विश्रुतविभा जी ने कहा कि प्रश्न होता है कि पूज्यप्रवर यहाँ क्यों पधारे हैं? स्वतः समाधान मिल जाता है कि आचार्यप्रवर लोगों को सम्यक् बोध देने पधारे हैं। अधिक अंधकार, चकाचौंध या संशय में हम देख नहीं पाते हैं। विपर्य की स्थिति में भी हम देख नहीं पाते हैं। जैन दर्शन में सम्यक् दर्शन को महत्त्व दिया गया है। मेरा दर्शन प्रसन्न रहे। पूज्यप्रवर की अभिवंदना में साध्वी प्रांजलप्रभा जी, साध्वी उन्नतयशा जी, समणी भावितप्रज्ञा जी, समणी रोहिणीप्रज्ञा जी, तेरापंथ महिला मंडल, सभाध्यक्ष घीसूलाल जीरावला, भूपतराज कांठेड़, अरविंद जीरावला, डूंगरचंद सालेचा (सिवांची-मालाणी अध्यक्ष) ने सामूहिक गीत द्वारा अपनी भावना अभिव्यक्त की। अणुविभा द्वारा अमृत महोत्सव पर प्रकाशित कैलेंडर पूज्यप्रवर को समर्पित किया। बाबूलाल देवता ने 25 की तपस्या के प्रत्याख्यान पूज्यप्रवर से ग्रहण किए। कार्यक्रम का संचालन मुनि दिनेश कुमार जी ने किया।