उत्सवों का सरताज है मर्यादा महोत्सव

उत्सवों का सरताज है मर्यादा महोत्सव

मर्यादा महोत्सव पर विशेष

मुनि कमल कुमार
जैन धर्म के मुख्य दो संप्रदाय हैं-दिगंबर और श्वेतांबर। श्वेतांबर में 3 संप्रदाय हैं-मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और तेरापंथ। तेरापंथ जैन धर्म का सबसे छोटा और जैन धर्म का नया संस्करण है। इस धर्मसंघ की शुरुआत आचार्य भिक्षु ने विक्रम संवत् 1817 आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन राजस्थान के मेवाड़ संभाग के केलवा नगर में तेले की तपस्या से की। आचार्य भिक्षु का लक्ष्य पंथ चलाने का नहीं बल्कि शुद्ध साधना का था। उस समय साधुओं में शिथिलाचार बढ़ने लगा था। सब अपने-अपने शिष्य बनाने और स्थान बनाने में लगे हुए थे। जनता की साधुओं के प्रति श्रद्धा घटती जा रही थी।
ऐसी विषम स्थिति को देख आचार्य भीखण जी ने विक्रम संवत् 1816 चेत्र सुदी नवमी के दिन मारवाड़ के कांठा संभाग के बगड़ी नगर से अभिनिष्क्रमण किया। उस समय आपको आहार-पानी, स्थल, वस्त्र आदि के लिए काफी संघर्ष सहन करना पड़ा। परंतु आपका फौलादी संकल्प आपके मनोबल को डिगा नहीं सका। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया लोगों में आपके प्रति श्रद्धा बढ़ने लगी। आपकी वैराग्य वृद्धि एवं साधना आराधना को देखकर आने वाले आपके श्रद्धावन बनते गए और श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती गई एवं दीक्षा का क्रम भी आरंभ हो गया। विक्रम संवत् 1832 में आपने संघ की श्रीवृद्धि देखकर उसकी सुव्यवस्था के लिए प्रथम लेख पत्र लिखा और अपने उत्तराधिकारी का विधिवत् चयन किया।
उसके बाद संघ की सुव्यवस्था के लिए समय-समय पर कई लेख पत्र लिखे। अंतिम मर्यादा पत्र विक्रम संवत् 1859 माघ शुक्ला सप्तमी के दिन लिखा गया था। उसी मर्यादा पत्र को आधार मानकर चतुर्थ आचार्य श्रीमद् जयाचार्य ने माघ शुक्ला सप्तमी के दिन विधिवत् मर्यादा महोत्सव मनाना प्रारंभ किया। तब से लेकर आज तक केवल एक महोत्सव को छोड़कर यह उत्सव व्यवस्थित रूप में मनाया जा रहा है। वह एक महोत्सव बीकानेर में राज्य शोक होने पर विधिवत् नहीं माना गया। 159 वर्षों से मनाए जाने वाले मर्यादा महोत्सव का आकर्षण संघ के आबाल वृद्ध में देखते ही बनता है। देश-विदेश में रहने वाले साधु-साध्वी, समण-समणी व श्रावक-श्राविका इस महोत्सव में पहुँचकर बाग-बाग हो जाते हैं।
महोत्सव पर तीन दिवसीय कार्यक्रम होता है। बसंत पंचमी से सप्तमी तक चलने वाले कार्यक्रम की शुरुआत तेरापंथ धर्मसंघ के वृद्ध, रुग्ण साधु-साध्वियों की चाकरी की घोषणा से होती है। तेरापंथ धर्मसंघ में विकसित होने वाले साधु-साध्वियों को जीवन-पर्यंत सेवा सुश्रुषा की कोई चिंता नहीं रहती। आचार्य स्वयं उचित, याचित, अयाचित व्यवस्था करते हैं। यह अपने आपमें एक उदाहरण है। मर्यादा महोत्सव पर चार तीर्थ को वर्षभर के लिए नई ऊर्जा की प्राप्ति होती है। गुरुदेव वर्षभर में करणीय कार्य की दिशा प्रदान करते हैं। साधु-साध्वियों की साधना वारना भी होती है।
जिससे संघ का प्रत्येक सदस्य ज्ञानवान और प्राणवान बना रहे। परिवार, समाज और संगठन में साधना वारना नहीं होती। वह परिवार, समाज और संगठन दीर्घजीवी नहीं बनता। तेरापंथ समाज में यह मर्यादा महोत्सव इस त्रिपदी के कारण स्वस्थ और विश्वस्त बना हुआ है। मर्यादा महोत्सव पर चातुर्मास की नियुक्तियाँ भी होती हैं। सभी लोग अपने-अपने क्षेत्र की अर्ज के साथ प्रस्तुत होते हैं। जिन्हें जिस साधु-साध्वियों का चौमासा मिलता है। उसे अपना सौभाग्य समझते हैं। यह तेरापंथ धर्मसंघ की बहुत बड़ी विशेषता है। यहाँ केवल नातीलो के सिवाय किसी का व्यक्तिगत चौमासा नहीं माँग सकते। कोई अगर ऐसी भूल करता है तो उसे उपालंभ या दंड भी मिल सकता है। ऐसा अतीत में हुआ है और भविष्य में भी संभव है। यहाँ केवल गुरु चरणों में अपने क्षेत्र में चातुर्मास की अर्ज की जा सकती है। आचार्य जैसा उपयुक्त समझते हैं वैसा निर्णय कर किसी भी साधु-साध्वियों का चौमासा फरमा सकते हैं, निर्णय सिर्फ आचार्य के हाथ है उसमें कोई भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
इन्हीं सब विशेषताओं के कारण तेरापंथ धर्मसंघ पूरे जैन समाज में अनुपम और अद्वितीय है। इस वर्ष का मर्यादा महोत्सव बायतू राजस्थान में महातपस्वी महामनस्वी शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण जी के पावन सान्निध्य में मनाया जा रहा है। वहाँ प्रथम बार मर्यादा महोत्सव होने से साधु-साध्वियों एवं श्रावक-श्राविकाओं में विशेष उत्साह दृष्टिगोचर हो रहा है। गुरुदेव की देश-विदेश में जो अहिंसा यात्रा हुई है वह अपने आपमें अनुपम, अद्वितीय और धर्मसंघ की महत्ता को बढ़ाने वाली सिद्ध हुई है। गाँव-गाँव, घर-घर में चर्चा का विषय बनी है। इस यात्रा से आबाल वृद्धों को ही नहीं शिक्षित, व्यापारी, कर्मचारी, राजनेता, धार्मिक नेताओं पर भी अच्छा प्रभाव देखने में सुनने को मिला है। गुरुदेव की प्रबल पुण्य और पुरुषार्थ के सामने सभी नतमस्तक हो गए। मर्यादा महोत्सव तेरापंथ का विशेष उत्सव है सैकड़ों साधु-साध्वियों के एक साथ दर्शन होने से लोग संघबद्ध आते हैं और अन्य समाज के लिए भी केवल दर्शनीय ही नहीं प्रशंसनीय और अनुकरणीय है, ऐसे विचार भी सुनने को मिलते हैं।