मनोनुशासनम्
पहला प्रकरण
हिताहार की कसौटियाँ निम्न हैं-
(1) शरीर की शक्ति-क्षय का निवारण, (2) शरीर की वृद्धि, (3) शरीर को उचित ताप-प्रदान, (4) बलकारक, (5) शीघ्र पाचन,
(6) अनुत्तेजक, (7) स्मृति, आयु, वर्ण, ओज, सत्त्व एवं शोभा की वृद्धि।
मिताहार-परिमित भोजन करना। भोजन की निश्चित मात्रा का निर्देश करना कठिन है। जितना खाने पर एक घंटा बाद भी पेट पर भार न हो, पानी पीने से पेट फटता न हो, वह मितभोजन है।
सात्त्विकाहार-मादक व उत्तेजक वस्तुओं का वर्जन, शरीर-इंद्रिय व मन की प्रसन्नता व लाघव में बाधा न पड़े, वैसा भोजन।
इंद्रिय-शुद्धि के उपाय
(1) इंद्रियों का सम्यक् योग, (2) प्रतिसंलीनता।
इंद्रियों की प्रवृत्ति के तीन प्रकार हैं-अयोग, अतियोग और योग। इंद्रियों की सर्वथा प्रवृत्ति न करना अयोग है। उनकी मर्यादा से अधिक प्रवृत्ति करना अतियोग है। ये दोनों इंद्रिय-दोष उत्पन्न करते हैं। इंद्रियों की उचित प्रवृत्ति करना योग है।
इंद्रियाँ ज्ञान के साधन हैं। वे विषयों के प्रति व्यापृत होती हैं, यह उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। यह शक्य नहीं कि आँखें हों और वे रूप या वर्ण को न देखें। यह शक्य नहीं कि कान हों और वे शब्द न सुनें। यह शक्य नहीं कि घ्राण हो और उसे गंध की अनुभूति न हो। यह शक्य नहीं कि रसना हो और उसे इसकी अनुभूति न हो। यह शक्य नहीं कि स्पर्शन हो और उसे स्पर्श की अनुभूति न हो। इंद्रियों के योग का संबंध हमारे स्वास्थ्य से है जबकि उसके सम्यग् योग का संबंध हमारी साधना से है। साधक को आँख प्राप्त है, इसलिए वह रूप को देखता है पर उसके साथ कल्पनाओं का योग नहीं करता। स्पर्शन और विकार एक नहीं है। इंद्रियों के द्वारा दृश्य जगत् का ज्ञान करना ऐन्द्रियिक ज्ञान है। यह ज्ञान कल्पना से मिश्रित होकर राग-द्वेष से जुड़ जाता है तब वह ऐन्द्रियिक विकार हो जाता है। सम्यग् योग का अर्थ है वर्तमान में प्राप्त विषयों को जानना, उनके साथ अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पनाओं को न जोड़ना-केवल रूप को देखना, केवल शब्द को सुनना, केवल गंध, रस और स्पर्श की अनुभूति करना।
इंद्रिय-शुद्धि का दूसरा उपाय प्रतिसंलीनता है। इंद्रिय-शुद्धि की प्रथम भूमि में विषय और इंद्रियों के संबंध की शुद्धि का अभ्यास किया जाता है और द्वितीय भूमिका में विषयों से संपर्क-विच्छेद का अभ्यास किया जाता है। आँख बंद कर लेना-यह रूप के साथ चक्षु का संबंध-विच्छेद है। कान बंद कर लेना-यह शब्द के साथ श्रोत का संबंध-विच्छेद है। नाक को बंद कर लेना-यह गंध के साथ घ्राण का संबंध-विच्छेद है। आहार नहीं करना-यह रस के साथ रसना का संबंध-विच्छेद है। स्पर्श नहीं करना-यह स्पर्श के साथ स्पर्शन का संबंध-विच्छेद है। इंद्रियों का बहिर्जगत् में प्रयोग न करना, उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों में ही सीमित रखना प्रतिसंलीनता है।
इंद्रियों की बाह्यलीनता समाप्त कर उनमें अंतर्लीनता उत्पन्न करना, यह भी प्रतिसंलीनता है। यह आकर्षण के विकर्षण का सिद्धांत है। अंतर् के प्रति आकर्षण कम होगा तो बाह्य के प्रति आकर्षण अधिक होगा। बाह्य के प्रति आकर्षण कम होगा तो अंतर् के प्रति आकर्षण बढ़ जाएगा। आकर्षण की दो भूमिकाएँ हैं-बाह्य और अंतरंग। इंद्रियों की शक्ति अंतरंग आकर्षण की ओर मुड़ जाए तो अंतरंग शक्ति का òोत खुल जाता है। दोनों भूमिकाओं का तुलनात्मक रूप निम्न यंत्र से स्पष्ट हो जाएगा-
बाह्याकर्षण अंतर्-आकर्षण
बाह्य ध्वनि अंतर्-ध्वनि
बाह्य दर्शन अंतर्-दर्शन
बाह्य गंध अंतर्-गंध
बाह्य रस अंतर्-रस
बाह्य स्पर्श अंतर्-स्पर्श
हमारी चेतना अशब्द, अरूप, अगंध, अरस और अस्पर्श है।
हम अंतर्-ध्वनि के प्रति आकर्षण उत्पन्न कर शुद्ध चेतना की भूमिका में नहीं पहुँच पाते हैं। इस प्रयत्न में हम केवल स्थूल से सूक्ष्म जगत् तक पहुँच पाते हैं। हमारे सूक्ष्म शरीर के साथ भी शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श का संबंध होता है। उसी के प्रति एकाग्र होकर हम अपनी इंद्रिय-शक्ति का नया आयाम प्राप्त करते हैं।
आनापानशुद्धि के उपाय
(1) प्राणायाम। (2) समतालश्वास। (3) दीर्घश्वास। (4) कायोत्सर्ग।
प्राणायाम-प्राणवायु के विस्तार को प्राणायाम कहा जाता है। उसके तीन अंग हैं-
(1) पूरक। (2) रेचक। (3) कुम्भक।
हम प्राणवायु को नथुनों द्वारा खींचकर नाभि तक ले जाते हैं, वह पूरक है। प्राण को नाभि से उठाकर नथुनों द्वारा बाहर ले जाते हैं, वह रेचक है। जिस अवस्था में प्राणवायु का ग्रहण और विसर्जन नहीं करते, वह कुम्भक हैं यह श्वास को रोकने की अवस्था है। श्वास को भीतर ले जाकर रोकते हैं, उसे अंतःकुम्भक कहा जाता है। उसे बाहर ले जाकर रोकते हैं उसका नाम बहिःकुम्भक है।
प्राण हमारी नाड़ियों से प्रवाहित होता है। वह कभी बाएँ नथुने से प्रवाहित होता है। उस मार्ग को इड़ा नाड़ी या चंद्रस्वर कहा जाता है। प्राण कभी दाएँ नथुने से प्रवाहित होता है, उस मार्ग को पिंगला नाड़ी या सूर्यस्वर कहा जाता है। प्राण कभी दोनों नाड़ियों के बीच में प्रवाहित होता है, उस मार्ग का नाम सुषुम्ना नाड़ी है। चंद्रस्वर शीत और सूर्यस्वर उष्ण होता है। सुषुम्ना में सहज ही मन स्थिर हो जाता है। कपालभाति प्राणायाम से सुषुम्नास्वर चलने लग जाता है।
(क्रमशः)