अर्हम
डाॅ0 समणी मंजुलप्रज्ञा
व्यक्ति का आना और जाना संसार का सामान्य और शाश्वत नियम है। कोई भी इसका अपवाद नहीं है। आने और जाने के बीच व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत रेखाचित्र उसे साधारण या असाधारण की भूमिका में प्रतिष्ठित कर देते हैं। जैन धर्म, तेरापंथ धर्मसंघ में नवम् आचार्यश्री तुलसी के युग में एक नई शुरुआत ‘विलक्षण दीक्षा’ के नाम से हुई। इसमें संभागी छह मुमुक्षु बहनों में प्रथम नाम जिनका रहा, उसे समणी स्थितप्रज्ञा के नाम से जाना गया।
समणी स्थितप्रज्ञा को जितना मैंने करीबी से जाना, देखा, समझा कुछ प्रसंग स्मृति पटल पर उतर रहे हैं। एम0ए0 के बाद शिक्षा के संदर्भ में मेरी कोई तत्परता न देख, उन्होंने मुझे कहा पी-एच0डी0 क्यों नहीं कर लेते? मैंने अपने डाॅक्यूमेंट्स की अपर्याप्तता आदि की बात कही। उन्होंने प्रेरणा व प्रोत्साहन की चाबी भरते हुए कहाµये कोई खास बात नहीं है। इसकी तो पूर्ति की जा सकती है। वे स्वयं मुझे शोध विभागाध्यक्ष के पास लेकर गए। सारी जानकारी व तैयारी कराके मुझे शोध कार्य के लिए तैयारी कर दिया। मेरे प्रमाद को दूर कर मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। शिक्षा के साथ परमार्थ की यात्रा के लिए समुचित किया।
समणी स्थितप्रज्ञा को मैं निरंतर सजगप्रज्ञा के रूप में पाती हूँ। स्वाध्याय के माध्यम से वे श्रुत-सेवी रहे, जप व ध्यान के प्रयोग से आत्मसेवी रहे, उपदेश-प्रेरणा में समय के नियोजन से वे तिन्नाणं के साथ तारथाणं की यात्रा में रत रहे, स्वावलंबी चेतना के साथ-साथ सहयोग व सेवाभावना से सामूहिक जीवन को आनंद व सार्थकता प्रदान की। सुप्त-प्रसुप्त चेतना को झकझोरने में, कर्म-रोग को दूर करने में उनकी लगन, मेहनत एवं जागृति देख मस्तक नत हो जाता है और दिल लाख-लाख धन्यवाद देता है।