मनोनुशासनम्
पहला प्रकरण
प्राणायाम के अनेक प्रकार हैं। किंतु वायु-शुद्धि के लिए सर्वाधिक उपयोगी और सर्वाधिक निर्दोष अनुलोम-विलोम प्राणायाम है। अनुलोम-विलोम प्राणायाम-दाएँ हाथ के अंगूठे से दाएँ नथुने को बंद कर बाएँ नथुने से श्वास लें और दाएँ नथुने से उसका रेचन करें। दाएँ हाथ की अनामिका और कनिष्ठा इन दो उँगलियों से बाएँ नथुने को बंद कर दाएँ नथुने से श्वास लें और बाएँ नथुने से उसका रेचन करें। प्रारंभ में ऐसी आठ-दस आवृत्तियाँ की जा सकती हैं, फिर धीमे-धीमे तीस तक बढ़ाई जा सकती हैं। प्राणायाम की कालमात्रा इस प्रकार होती है-
पूरक आठ मात्रा
रेचक सोलह मात्रा
कुम्भक बत्तीस मात्रा
सकुम्भक अनुलोम-विलोम प्राणायाम-प्राणायाम की इस द्वितीय भूमिका में कुम्भक किया जाना चाहिए। कुम्भक का कालमान ऊपर बताया गया है। समूलबंध अनुलोम-विलोम प्राणायाम-इस प्रक्रिया में अनुलोम-विलोम प्राणायाम के साथ मूलबंध और जुड़ जाता है। सोड्डीयान अनुलोम-विलोम प्राणायाम-इस प्रक्रिया में कुम्भक और मूलबंध सहित अनुलोम-विलोम प्राणायाम के साथ उड्डीयान बंध और जुड़ जाता है।
श्वास के दोष विषम और ह्रस्व श्वास से उत्पन्न होते हैं और वे मन को चंचल बनाते हैं। मन की स्थिरता के लिए श्वास को विशुद्ध बनाना नितांत आवश्यक है। साधना की भाषा में जैसा कि मैं समझ पाया हूँ श्वास और मन का गहरा संबंध है। श्वास की चंचलता मन की चंचलता को जन्म देती है और मन की चंचलता फिर श्वास को चंचल बनाती है। इस क्रम में स्थिरता कम होती चली जाती है। अतः मन की शुद्धि के लिए श्वास की शुद्धि बहुत आवश्यक है। प्राणायाम का क्रमिक विकास-प्रारंभ में प्राणायाम के दो अंगों-पूरक और रेचक का ही अभ्यास करना चाहिए। सोमदेव सूरि ने लिखा है-
मन्दं मन्दं क्षिपेद् वायुं, मन्दं मन्दं विनिक्षिपेत्।
न क्वचिद् वार्यते वायुर्न च शीघ्रं प्रमुच्यते।।
(यशस्तिलक, 39)
प्राणवायु को धीमे-धीमे लेना चाहिए और धीमे-धीमे छोड़ना चाहिए। वायु को न रोका जाए और न शीघ्रता से छोड़ा जाए। प्रारंभ में प्राण को रोकने का अभ्यास होता है, इसलिए उसे रोक लेने पर शीघ्रता से छोड़ने की स्थिति पैदा हो जाती है। वैसा करने में हानि होती है। प्रारंभ में दीर्घ श्वास का अभ्यास, फिर पूरक और रेचक का अभ्यास और फिर कुम्भक का अभ्यास-यह प्राणायाम का विकासक्रम है। हठयोग में प्राणायाम के अनेक प्रकार बताए गए हैं। शारीरिक सिद्धियों के लिए उनका उपयोग भी हो सकता है किंतु ध्यान की सिद्धि के लिए उनका उपयोग हमारे हनुभव में नहीं है। ध्यान की सिद्धि के लिए उसी प्राणायाम का उपयोग होता है, जिससे प्राण सूक्ष्म बन सके। नाभि, नासाग्र, भृकुटि और मस्तिष्क में मन को केंद्रित करने से प्राण सूक्ष्म हो जाता है। कुम्भक करने से तो वह सूक्ष्म होता ही है।
रेचक और पूरक का सम्यक् अभ्यास हो जाने के बाद पाँच-दस सेकंड का कुम्भ्कर किया जाए और वह भी चार-पाँच बार। फिर धीमे-धीमे समय और बार दोनों बढ़ाए जा सकते हैं।
जिसे मन को स्थिर करने की सामान्य अपेक्षा हो, वह दो-तीन मिनट का कुम्भक दिन-रात में दो-चार बार कर ले और जिसे विशेष साधना करनी हो, वह घंटों तक कुम्भक का अभ्यास कर सकता है। कुम्भक जितना शक्तिòोत है, उतना ही भयंकर है। कुम्भक की विशेष साधना किसी अनुभवी साधक की देख-रेख में ही की जा सकती है। उसमें खाने, चलने, बोलने की चर्या में पर्याप्त परिवर्तन करना पड़ता है।
प्राणायाम के व्यावहारिक लाभ-पूरक से पुष्टि प्राप्त होती है। रोचक से उदर की व्याधियाँ क्षीण होती हैं। कंुभक में आंतरिक शक्तियाँ जाग्रत होती हैं। चंद्रस्वर से गर्मी शांत होती है और सूर्यस्वर से गर्मी बढ़ती है। वायु तथा कफ के प्रकोप मिटते हैं। जो स्वर चल रहा हो, उसे रोककर विपरीत स्वर चलाने से तात्कालिक उपद्रव शांत होते हैं। दूषित प्राण-वायु से जीवन की हानि होती है और शुद्ध प्राणवायु से जीवनी-शक्ति का विकास होता है।
इंद्रियविजय, मनोविजय, कषायविजय-इन शब्दों से हम सुपरिचित हैं किंतु प्राणविजय शब्द से हम सुपरिचित नहीं हैं। जैन लोगों में एक साधारण धारणा है कि प्राणायाम हमारी परंपरा में मान्य नहीं है, महर्षि पतंजलि तथा हठयोग की परंपरा में मान्य रहा है। यह धारणा समुचित नहीं है। आवश्यक निर्युक्ति में श्वास का निरोध न किया जाए ऐसा उल्लेख मिलता है। किंतु यह निषेध किसी विशेष स्थिति में किया गया प्रतीत होता है। भद्रबाहु स्वामी महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। उसकी आधार-भित्ति प्राणायाम है। अन्य अनेक आचार्यों ने ध्यान संवरयोग की साधना की है। उसमें भी प्राणायाम प्रमुख होता है। महाप्राण साधना या ध्यान योग की साधना में बारह-बारह वर्ष लग जाते थे। इस साधना में लगने वाले संघीय कार्य करने से विरत हो जाते थे तथा किसी प्रमादवश प्राणहानि भी हो जाती थी। संभव है इसी प्रकार के किसी कारण को ध्यान में रखकर आवश्यक निर्युक्ति में श्वासनिरोध का निषेध किया गया।
वस्तुवृत्या प्राणायाम जैन-परंपरा से असम्मत नहीं है। प्राणायाम के बिना प्राण-विजय नहीं हो सकती और उसके बिना इंद्रिय-विजय, मनोविजय और कषायविजय का होना साधारणतया संभव नहीं है। ध्यान की प्रत्येक पद्धति के साथ श्वास को सूक्ष्म या मंद करने का विधान मिलता है।
(क्रमशः)