
साँसों का इकतारा
122)
मुट्ठी में सूरज ले जनमे
नभ में अनगिन चाँद उगाए।
पौरुष के प्रतिमान शान से
कीर्तिमान कमनीय बनाए।।
मिला निमंत्रण लहरों का तो
नहीं तीर पर रहना भाया
कभी नाव का लिया सहारा
कभी स्वयं भुजबल अजमाया
तूफानों से डरे न तिलभर
संघर्षों को गले लगाया
शौर्य संतुलन देख तुम्हारा
कुदरत का कण-कण चकराया
चुभन शूल-सी मिली भले ही
बनकर फूल सदा मुसकाए।।
जग की पीड़ा को तुमने अपने
अंतस की पीड़ा माना
लक्ष्य तुम्हारा जीवनभर
जीवन-मूल्यों की अलख जगाना
बड़ी सोच ने बुना निरंतर
गण-विकास का ताना-बाना
आवरणों में छिपी विलक्षण
प्रतिभा को तुमने पहचाना
आहत प्राण मनुजता के निज
कोमल हाथों से सहलाए।।
अनुशासन के शिखर पुरुष तुम
थी अद्भुत अनुशासन शैली
निज पर शासन: फिर अनुशासन
विधा जिंदगी की अलबेली
अनुशासन आधार प्रगति का
अनुशासन है चित्राबेली
अनुशासन से ही सुलझाई
उलझ गई जो कभी पहेली
अनुशासन का वर्ष मना
सबमें सात्त्विक संस्कार जगाए।।
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर
चढ़ने का संकल्प तुमहारा
रुका सूर्य का रथ भी तुमने
यदि उसको कर दिया इशारा
पारदर्शिता देव! तुम्हारी
सदा क्षितिज के पार निहारा
जटिल समस्या के सागर का
तुमने झट पा लिया किनारा
अर्पित हैं उस अनुपमेय को
आस्था की अनमोल ऋचाएँ।।
(क्रमशः)