संबोधि
बंध-मोक्षवाद
मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा
भगवान् प्राह
(24) एवमधर्मपक्षेऽपि धर्माधर्मेऽपि कश्चन।
धर्मपक्षे स्थितः कश्चित्, त्रिविधो विद्यते जनः।।
पक्ष तीन होते हैं-(1) अधर्म-पक्ष, (2) धर्माधर्म-पक्ष, (3) धर्म-पक्ष।
इन तीन पक्षों में अवस्थित होने के कारण पुरुष भी तीन प्रकार के होते हैं-(1) अधर्मी, (2) धर्माधर्मी, (3) धर्मी।
प्राणियों के इन तीन विकल्पों का आधार आंतरिक है। भेदों की मीमांसा यहाँ अभीष्ट नहीं है। साधक की दृष्टि अंतर्मुखी होती है। वह अंतर को देखता है। महावीर ने देखा-प्राणी अभी गहन अंधकार में पड़े हुए हैं। बहुत से मनुष्य भी तम की यात्रा पर चल रहे हैं, धर्म के प्रति उनमें कोई आकर्षण नहीं है। महावीर ने कहा-वे बाल हैं, बच्चे हैं, नादान हैं, अविवेकी हैं, वे संस्कारों के पाश में बद्ध हैं। उनका केंद्र-बिंदु बहिर्जगत् है।
दूसरे प्रकार के व्यक्तियों को वे कहते हैं-बाल-पंडित। ये ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें विवेक भी है और अज्ञान भी है। ये पूर्णतया सोये भी नहीं हैं और पूर्णतया जगे भी नहीं हैं। इनके जीवन में जागरण और निद्रा दोनों चल रहे हैं, कुछ जागते हैं और कुछ सोते हैं। जागरण शुरू तो हो जाता है किंतु उसका पूर्ण विकास नहीं होता। इस दशा में ममत्व, आसक्ति, राग, द्वेष, मोह, क्लेश आदि वृत्तियाँ उठती हैं, गिरती हैं। इसलिए इस अवस्था का नाम धर्म-अधर्म पक्ष, बाल-पंडित रखा है।
तीसरा पक्ष स्पष्ट है। यहाँ चेतना अकुशल वृत्तियों से हटकर कुशल में प्रविष्ट हो जाती है। साधक अंतर्जीवन के सघन-सागर में निमग्न रहता है। आत्म-स्मृति से प्रतिक्षण जुड़ा रहता है। संतों ने इस स्मरण को ही सार कहा है-
कबिरां सुमिरन सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंत मध्य सुमिरन, बाकी है भ्रम जाल।।
यह यात्रा धर्म की है, अनासक्ति की है और सहजता की है। इसलिए इसे धर्म-पक्ष, ‘पंडित’ कहा है।
(क्रमशः)