उपासना
उपासना
(भाग - एक)
आचार्य तुलसी
आचार्यश्री महाप्रज्ञ
आचार्य महाप्रज्ञ कुशल प्रवचनकार होने के साथ-साथ महान लेखक, महान श्रुतधर और महान साहित्यकार हैं। उनकी सारस्वत वाणी से निकला हर शब्द साहित्य बन जाता है। उन्होंने विविध विषयों पर शताधिक ग्रंथ लिखे हैं। प्रत्येक ग्रंथ में उनका मौलिक चिंतन प्रस्फुटित हुआ है। उनके ग्रंथ जहाँ साहित्य-जगत की अमूल्य धरोहर है, वहाँ मानवता की विशिष्ट सेवा भी है। आचार्य तुलसी के वाचना-प्रमुखत्व में जैनागमों के वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ आधुनिक संपादन उनकी विलक्षण प्रतिभा का परिचायक है, अर्हतवाणी के प्रति महान समर्पण का सूचक है।
शोध विद्वानों के लिए आचार्य महाप्रज्ञ एक विश्वकोश हैं। शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो आचार्य महाप्रज्ञ के ज्ञानकोष्ठ में अवतरित न हुआ हो।
आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान एवं जीवन विज्ञान के रूप में एक विशिष्ट वैज्ञानिक साधना-पद्धति का आविष्कार किया है। इस साधना-पद्धति के द्वारा प्रतिवर्ष सैकड़ों व्यक्ति मानसिक विकृति से दूर हटकर आध्यात्मिक ऊर्जा प्राप्त करते हैं।
थोड़े शब्दों में कहा जाए तो आचार्य महाप्रज्ञ की सृजन चेतना से धर्मसंघ लाभान्वित हुआ है, जैन समाज लाभान्वित हुआ है और संपूर्ण मानव जाति लाभान्वित हुई है। आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा यात्रा के माध्यम से जन-जन में नैतिक चेतना जागरण का शंखनाद किया है।
संप्रदाय-भेद
विचार का इतिहास जितना पुराना है, लगभग उतना ही पुराना विचार-भेद का इतिहास है। विचार व्यक्ति-व्यक्ति की ही उपज होता है, किंतु संघ में रूढ़ होने के बाद संघीय कहलाता है।
तीर्थंकर-वाणी जैन-संघ के लिए सर्वोपरि प्रमाण है। वह प्रत्यक्ष दर्शन है, इसलिए उसमें तर्क की कर्कशता नहीं है। वत तर्क से बाधित भी नहीं है। वह सूत्ररूप है। उसकी व्याख्या में तर्क का लचीलापन आया है। भाष्यकार और टीकाकार प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे। उन्होंने सूत्र के आशय को परंपरा से समझा। कहीं समझ में नहीं आया, हृदयंगम नहीं हुआ तो अपनी युक्ति और जोड़ दी। लंबे समय में अनेक संप्रदाय बन गए। श्वेतांबर और दिगंबर जैसे शासन-भेद हुए। भगवान् महावीर के समय में कुछ श्रमण वस्त्र पहनते, कुछ नहीं भी पहनते। भगवान् महावीर स्वयं वस्त्र नहीं पहनते थे। वस्त्र पहनने से मुक्ति होती ही नहीं या वस्त्र नहीं पहनने से मुक्ति होती है, ये दोनों बातें गौण हैं। मुख्य बात है राग-द्वेष से मुक्ति। जैन परंपरा का भेद मूल तत्त्वों की अपेक्षा ऊपरी बातों या गौण प्रश्नों पर अधिक टिका हुआ है।
दीर्घकालीन परंपरा में विचार-भेर होना अस्वाभाविक नहीं है। जैन परंपरा में भी ऐसा हुआ है। आमूलचूल विचार-परिवर्तन होने पर कुछ जैन साधु निग्र्रन्थ शासन को छोड़कर अन्य शासन में जाकर वहाँ श्रमण बन गए। गोशालक भी उनमें से एक था। ऐसे श्रमणों को विÐव की संज्ञा नहीं दी गई। विÐव उन्हीं साधुओं को कहा गया, जिनका चालू परंपरा के साथ किसी एक विषय में मतभेद हो जाने के कारण वे वर्तमान शासन से पृथक् हो गए, किंतु किसी अन्य धर्म को स्वीकार नहीं किया। इसलिए उन्हें अन्यधर्मी न कहकर, जैन शासन के निÐव (किसी एक विषय का अपलाप करने वाले) कहा गया है। इस प्रकार के निÐव सात हुए हैं। इनमें से दो निÐव (जमाली और तिष्यगुप्त) भगवान् महावीर की कैवल्य-प्राप्ति के बाद हुए हैं और शेष पाँच निर्वाण के बाद। इन सब निÐवों का अस्तित्व-काल भगवान् महावीर की कैवल्य-प्राप्ति के चैदह वर्ष से निर्वाण के बाद पाँच सौ चैरासी वर्ष तक रहा। उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार हैµ
(1) बहुरतवाद
जमाली पहला निÐव था। वह क्षत्रिय-पुत्र और भगवान् महावीर का दामाद था। माँ-बाप के अगाध प्यार और अतुल ऐश्वर्य को ठुकरा कर वह निग्र्रन्थ बना। भगवान् महावीर ने स्वयं उसे प्रव्रजित किया। पाँच सौ व्यक्ति उसके साथ थे। मुनि जमाली अब आगे बढ़ने लगा। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में अपने-आप को लगा दिया। सामायिक आदि ग्यारह अंग पढ़े। वह विचित्र तप-कर्म उपवास, बेला, तेला यावत् अर्द्ध मास और मास की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगा।
(क्रमशः)