मनोनुशासनम्

स्वाध्याय

मनोनुशासनम्

पहला प्रकरण

सूक्ष्म प्राणायाम का अभ्यास अनेक विधियों से किया जा सकता है-
(1) सर्वप्रथम दीर्घ-श्वास का अभ्यास करें। धीमे-धीमे श्वास को भीतर गहरे में ले जाएँ और धीमे-धीमे उसका रेचन करें। इस क्रिया से नाभि के आस-पास तक प्रकंपन पैदा हो जाता है। कम से कम इसकी बीस-पचीस आवृत्तियाँ होनी चाहिए।
(2) श्वास पर ध्यान केद्रित करने से वह शांत, मंद और दीर्घ अपने आपको हो जाता है।
(3) सामान्यतः हम एक मिनट में पंद्रह श्वास और पंद्रह निःश्वास लेते हैं। दो सेकेंड में एक श्वास या एक निःश्वास होता है। क्रमिक अभ्यास के द्वारा एक मिनट में छह श्वास और छह निःश्वास, फिर तीन श्वास और तीन निःश्वास, फिर दो श्वास और दो निःश्वास तथा एक श्वास और एक निःश्वास एक मिनट में करें। यह सूक्ष्म प्राणायाम है। इससे मन को स्थिर, शांत करने में बहुत सहयोग मिलता है।
योग की भाषा में प्राण, बिंदु (वीर्य) और मन पर्यायवाची जैसे हैं। प्राण पर विजय पा लेने से बिंदु और मन पर विजय हो जाती है। बिंदु पर विजय पा लेने से प्राण और मन विजित हो जाते हैं। मन पर विजय पा लेने से प्राण और बिंदु सध जाते हैं। तीनों में से किसी एक की साधना करने पर शेष दो स्वयं सध जाते हैं।
प्राण, बिंदु और मन-इन तीनों में प्राण का स्थान पहला है। पहला इस अर्थ में है कि प्राण की साधना के बिना उन दोनों को साधना सर्व साधारण के लिए कठिन कार्य है।
समताल श्वास-जितनी मात्रा में पहला श्वास लिया गया, उतनी ही मात्रा में दूसरा, तीसरा। इस प्रकार तालबद्धश्वास लेना समताल श्वास है।
दीर्घश्वास-लंबा श्वास लेना।
कायोत्सर्ग-कायोत्सर्ग का अर्थ है-शरीर की चंचलता का विसर्जन। इसका विवेचन कायोत्सर्ग के प्रकरण में किया जाएगा।
कायशुद्धि के उपाय
कायोत्सर्ग, आसन, मूलबंध, उड्डीयानबंध, जालंधरबंध, व्यायाम, प्राणायाम और निर्लेपता-ये कायशुद्धि के उपाय हैं।
कायशुद्धि के उपर्युक्त आसनों का वर्णन आसन प्रकरण में किया जाएगा।
मूलबंध-गुदा को ऊपर की ओर खींचने को मूलबंध कहा जाता है। साधना की प्रत्येक अवस्था में मूलबंध करना बहुत आवश्यक है। वह एक प्रकार से साधना का आधारभूत है। इससे मूल नाड़ी सीधी हो जाती है। मन की एकाग्रता करने के लिए यह बहुत अपेक्षित है।
उड्डीयानबंध-श्वास का रेचन कर पेट को सिकोड़ना उड्डीयानबंध है। उड्डीयान करते समय छाती का भाग थोड़ा आगे की ओर उभरा हुआ होना चाहिए। उदर संबंधी दोषों को मिटाने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपाय है। इससे अग्नि प्रज्वलित होती है। पेट को सिकोड़ने पर इसका अंतर्भाग पृष्ठरज्जु से सटकर उस पर दबाव डालता है। उससे तैजस्शक्ति (कुंडलिनी) और ज्ञानतंतु दोनों प्रदीप्त होते हैं।
जालंधरबंध-ठुड्डी को कंठकूप में स्थापित करने को जालंधर बंध कहा जाता है। सर्वांगासन, हलासन, मत्स्यासन की एक मुद्रा में यह अपने आप हो जाता है। मानसिक विकास के लिए यह बहुत उपयोगी है। इससे कंठमणि पर उचित दबाव पड़ता है। आधुनिक शरीर-शास्त्रियों के अनुसार कंठमणि ही शरीर में रक्त, ताप तथा प्रेम, ईष्र्या, द्वेष आदि वृत्तियों को नियंत्रित करता है। यह हमारे शरीर की नियामक ग्रंथि है। इस पर जालंधरबंध के द्वारा हम नियंत्रण रख सकते हैं और अनेक उपयोगी रसों का òाव कर सकते हैं।
मूलबंध लंबे समय तक तथा चाहे जितनी बार किया जा सकता है। उड्डीयानबंध का अभ्यास भोजन करने से पूर्व किया जा सकता है। किंतु प्रारंभ में लंबे समय तक करना उचित नहीं है। पेट को भीतर की ओर सिकोड़कर आधा मिनट तक रखा जा सकता है। एक सप्ताह के अभ्यास के बाद एक मिनट तक। एक प्रकार प्रति सप्ताह आधा या एक मिनट बढ़ाते-बढ़ाते अपनी शक्ति व सहिष्णुता के अनुसार आधा घंटा तक बढ़ाया जा सकता है। इस बंध के साथ मूलबंध अवश्य होना चाहिए तथा आँखें खुली नहीं होनी चाहिए अन्यथा उनकी ज्योति नष्ट होने की संभावना रहती है। जालंधरबंध का समय भी उड्डीयानबंध की भाँति क्रमशः बढ़ता है। इसे साधारण आदमी को पाँच-सात मिनट से ज्यादा नहीं बढ़ाना चाहिए कुछ समय के लिए तीनों बंध एक साथ किए जा सकते हैं।
व्यायाम-हाथ, पैर या किसी भी अवयव को इच्छानुसार सिकोड़ना और फैलाना व्यायाम है।
निर्लेपता-विषयों की आसक्ति से शरीर की अशुद्धि होती है। विषय विकार के हेतु बनते हैं और विकार से कायिक दोष उत्पन्न होते हैं। अनासक्त (निर्लेप) व्यक्ति सहज भाव से कायिक दोषों से बच जाता है।

वाक्शुद्धि के उपाय
(1) प्रलंबनाद का अभ्यास। (2) सत्यपरक प्रयोग।
वाक् मन परिष्कृत होकर ही प्रकट होती है। मन की सरलता होती है तब वाणी शुद्ध रहती है। मन की कुटिलता होने पर वह अशुद्ध हो जाती है। जिस साधक का मन सरल और पवित्र होता है, उसे वाक्-सिद्धि प्राप्त होती है। वह जो कहता है वही हो जाता है। वाणी में यह शक्ति उसकी मानसिक पवित्रता से प्राप्त होती है।
¬, अर्हं, सोहम् आदि मंत्राक्षरों का दीर्घ उच्चारण करने से मन वाणी के साथ जुड़ जाता है। मन का योग पाकर वाणी शक्तिशाली हो जाती है। वह वायुमंडल में तीव्र कंपन पैदा कर देती है। उससे अनिष्ट परमाणु दूर हो जाते हैं और इष्ट परमाणुओं का परिपाश्र्व बन जाता है।
दीर्घोच्चारण का अभ्यास दो मिनट से प्रारंभ कर पंद्रह मिनट तक बढ़ाना चाहिए। प्रति सप्ताह दो मिनट बढ़ाया जा सकता है। इस अभ्यास में मन को समस्याओं से मुक्त और सरल रखना आवश्यक है।

(क्रमशः)