उपासना

स्वाध्याय

उपासना

भाग - एक

आचार्य महाश्रमण

एक दिन की बात हैए ज्ञानी और तपस्वी जमाली भगवान् महावीर के पास आया। वंदना कीए नमस्कार किया और बोलाµष्भगवन्! मैं आपकी आज्ञा पाकर पाँच सौ निग्र्रन्थों के साथ जनपद.विहार करना चाहता हूँ।ष् भगवान् ने जमाली की बात सुन ली। उसे आदर नहीं दिया। मौन रहे। जमाली ने दुबारा और तिबारा अपनी इच्छा को दोहराया। भगवान् पहले की भाँति मौन रहे। जमाली उठा। भगवान् को वंदना कीए नमस्कार किया। बहुशाल नामक चैतन्य से निकला। अपने साथी पाँच सौ निग्र्रन्थों को साथ ले भगवान् से अलग विहार करने लगा।
श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में जमाली ठहरा हुआ था। संयम और तप की साधना चल रही थी। निग्र्रन्थ.शासन की कठोर चर्या और वैराग्यवृत्ति के कारण वह अरस.विरसए अंत.प्रांतए रूखा.सूखा.कालातिक्रांतए प्रमाणातिक्रांत आहार लेता। उससे जमाली का शरीर रोगांतक से घिर गया। विपुल वेदना होने लगी। कटु दुःख उदय में आया। पित्तज्वर से शरीर जलने लगा। घोरतम वेदना से पीड़ित जमाली ने अपने साधुओं से कहाµष्देवानुप्रियो! बिछौना करो। साधुओं ने विनयावनत हो उसे स्वीकार किया। बिछौना करने लगे। वेदना का वेग बढ़ रहा था। एक.एक पल भारी हो रहा था। जमाली ने अधीर स्वर से पूछाµष्मेरा बिछौना बिछा दिया या बिछा रहे होघ्ष् श्रमणों ने उत्तर दियाµष्देवानुप्रिय! आपका बिछौना किया नहींए किया जा रहा है।ष् दूसरी बार फिर पूछाµष्देवानुप्रियो! बिछौना किया या कर रहे होघ्ष् श्रमण.निग्रन्थ बोलेµष्देवानुप्रिय! आपका बिछौना किया नहींए किया जा रहा है।ष् इस उत्तर ने वेदना से अधीर बने जमाली को चैंका दिया। शारीरिक वेदना की टक्कर से सैद्धांतिक धारणा हिल उठी। विचारों ने मोड़ लिया। जमाली सोचने लगाµभगवान् चलमान को चलितए उदीर्यमाण को उदीरित यावत् निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण कहते हैंए वह मिथ्या है। यह सामने दीख रहा है। मेरा बिछौना बिछाया जा रहा हैए किंतु बिछा नहीं है। इसलिए क्रियमाण अकृतए संस्तीर्यमाण असंस्तृत हैµकिया जा रहा है किंतु किया नहीं गया हैए बिछाया जा रहा है किंतु बिछा नहीं हैµका सिद्धांत सही है। इसके विपरीत भगवान् का ष्क्रियमाण कृतष् और संस्तीर्यमाण संस्तृतष्µकरना शुरू हुआए वह कर लिया गयाए बिछाना शुरू कियाए वह बिछा लिया गयाµयह सिद्धांत गलत है। चलमान को अचलित यावत् निर्जीर्यमाण को अनिर्जीर्ण मानना सही है। बहुरतवाद.कार्य की पूर्णता होने पर उसे पूर्ण कहना ही यथार्थ है। इस सैद्धांतिक उथल.पुथल ने जमाली की शरीर.वेदना को निर्वीर्य बना दिया। उसने साधुओं को बुलाया और अपना सारा मानसिक आंदोलन कह सुनाया। श्रमणों ने आश्चर्य के साथ सुना। जमाली भगवान् के सिद्धांत को मिथ्या और अपने परिस्थिति.जन्य अपरिपक्व विचार को सच बता रहा है। कुछेक श्रमणों को जमाली का विचार रुचाए मन को भायाए उस पर श्रद्धा जमी। वे जमाली की शरण में रहे। कुछेक जिन्हें जमाली का विचार नहीं जंचाए उस पर श्रद्धा या प्रतीति नहीं हुईए वे भगवान् की शरण में चले गए। थोड़ा समय बीता। जमाली स्वस्थ हुआ। श्रावस्ती से चला। एक गाँव से दूसरे गाँव विहार करने लगा। भगवान् उन दिनों चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य में विराज रहे थे। जमाली वहाँ आया। भगवान् के पास बैठकर बोलाµष्देवानुप्रिय! आपके बहुत सारे शिष्य असर्वज्ञदशा में गुरुकुल से अलग होते हैं। वैसे मैं नहीं हुआ हूँ। मैं सर्वज्ञए अर्हत्ए जिनए केवली होकर आपसे अलग हुआ हूँ।ष् जमाली की यह बात सुनकर भगवान् के ज्येष्ठ अंतेवासी गौतम स्वामी बोलेµष्जमाली! सर्वज्ञ का ज्ञान.दर्शन शैल.स्तंभ और स्तूप से रुद्ध नहीं होता। जमाली! यदि तुम सर्वज्ञ होकर भगवान् से अलग हुए हो तो लोक शाश्वत है या अशाश्वतए जीव शाश्वत है या अशाश्वतµइन दो प्रश्नों का उत्तर दो।ष् गौतम के प्रश्न सुन वह शंकित हो गया। उनका यथार्थ उत्तर नहीं दे सका। मौन हो गया। भगवान् बोलेµष्जमाली! मेरे अनेक छद्मस्थ शिष्य भी मेरी भाँति इन प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हैं। किंतु तुम्हारी भाँति अपने आपको सर्वज्ञ कहने में समर्थ नहीं हैं।

क्रमशः